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________________ ( सुखी होने का उपाय भाग-४ ते जगमांहि सहज वैरागी, ज्ञानकला जिनके घट जागी, ज्ञानी मगन विषय सुख माहीं, यह विपरीत संभवै नाहीं ॥ उपरोक्त आगम वाक्यों से ज्ञानी जीव की अन्तर्परिणति का स्पष्ट चित्रण होता है । करणानुयोग के आधार से भी स्पष्ट है कि श्रद्धा सम्यक् होते ही अनन्तानुबंधी का अभाव होना अवश्यंभावी है, फलतः साथ-साथ ही उतने अंश में परिणति में वीतरागता प्रगट होती ही है, आगे पीछे नहीं । उपरोक्त परिणति ज्ञानीजीव को सहजरूप से स्वाभाविक वर्तने लगती है । इस परिणति की आंशिक प्रगटता तो सम्यक्त्वसन्मुखजीव को भी उत्पन्न होना अवश्यंभावी है। इसलिए ऐसी प्रगटता ही आत्मार्थी का यथार्थ लक्षण है । यह इसका प्रमाण भी है कि उस जीव ने आगमाभ्यास आदि के द्वारा यथार्थ निर्णय प्राप्त किया है 1 ७४ ) उपरोक्त परिणति प्रगट हुए बिना प्रायोग्यलब्धि का प्रारम्भ अर्थात् मोक्षमार्ग प्राप्त करने की योग्यता ही प्रगट नहीं होती। अत: आत्मार्थी को उपरोक्त पात्रता प्रगट करने के लिए "मैं ज्ञानस्वभावी ही हूँ", मैं स्वयं अनन्त शक्तियों का भण्डार हूँ, मेरा सुख अन्य कहीं से नहीं आ सकता मैं स्वयं ही सुख का भण्डार हूँ। अतः वह मेरे में से ही प्रगट होगा, इत्यादि द्वारा अपने आप की ऐसी महिमा जागृत होना चाहिए कि सारे जगत से भी आत्मार्थी को अपने आत्मस्वभाव की अधिकता लगने लगे और उसको प्राप्त करने के लिए अत्यन्त उत्साहित हो जावे । उपरोक्त स्थिति प्राप्त होने तक आत्मार्थी को निरन्तर जिनवाणी का अध्ययन तथा सत्समागम चिन्तन मनन द्वारा उक्त निर्णय प्राप्त करने में ही लगा रहना चाहिए । आकर्षण का केन्द्रबिन्दु आत्मा ही कैसे हो ? प्राणीमात्र को सुख चाहिए। हर एक उपाय प्रत्येक प्राणी सुख प्राप्त करने के लिए ही करता है। मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ७८ में कहा है कि - " इस जीव का प्रयोजन तो एक यही है कि दुःख न हो और सुख www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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