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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (७३ प्रतिभासित होता है तथा ऐसी अवस्था में दोषों के साथ मन भी मरने की इच्छा करता है।" संक्षेप में कहो तो संसार देह, भोगों से विरक्ति होना ही उपरोक्त तत्त्वज्ञान को समझने का फल है। “मैं तो ज्ञानस्वभावी आत्मा ही हूँ, पर से निरपेक्ष रहकर जानते रहना ही मेरा स्वभाव है।" ऐसी अन्तरंग में श्रद्धा जागृत होते ही उस जीव की परिणति में परिवर्तन आये बिना रहता ही नहीं तथा ऐसी धुन लग जाती है कि - ____ “काम एक आत्मार्थ का, अन्य नहीं मनरोग" उसका फल आता है कि --- “कषाय की उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष । भवे खेद प्राणी दया, वहाँ आत्मार्थ निवास ॥" उपरोक्त विरागता उत्पन्न हुए बिना, परिणति में सम्यक्त्व की पात्रता उत्पन्न नहीं होती, कारण सम्यग्दृष्टि जीव का ज्ञान नियम से वैराग्य सहित ही होता है। आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने समयसार कलश १३६ में कहा भी “सम्यग्दृष्टिर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्तया। यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वत: स्व परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्।। १३६ ।। अर्थ - सम्यग्दष्टि के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती हैं; क्योंकि वह स्वरूप का ग्रहण और पर का त्याग करने की विधि के द्वारा अपने वस्तुत्व का (यथार्थ स्वरूप का) अभ्यास करने के लिये, यह स्व है अर्थात् आत्मस्वरूप है, और यह पर है इस भेद को परमार्थ से जानकर स्व में स्थिर होता है और पर से, राग के योग से, सर्वत: विरमता (रुकता) है। यह रीति ज्ञान वैराग्य की शक्ति के बिना नहीं हो सकती।" ___ पण्डित बनारसीदासजी ने भी नाटक समयसार निर्जरा द्वार के चौपाई ४१ में कहा है कि - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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