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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( ६९ नहीं हो सकेगी; क्योंकि अज्ञानी आत्मा का अनुभव करनेवाला उपयोग तो अभी तक निजात्मा को भूलकर पर पदार्थों को अपना व हितकर मानते रहने से परसन्मुख ही हो रहा है। अतः जब तक उन सब पर पदार्थों को परपने का विश्वास जागृत नहीं होगा तथा इन पदार्थों को सुखकर मानता रहेगा तब तक मेरा आत्मा पर पदार्थों की सन्मुखता छोड़कर आत्मसन्मुख कैसे और क्यों होगा ? उपयोग आत्मसन्मुख हुए बिना निर्विकल्पता नहीं हो सकेगी अर्थात् आत्मा का अनुभव नहीं हो सकेगा । समयसार ग्रन्थ की गाथा २०६ में कहा भी है कि इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्टरे । इसमें ही बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे ॥ २०६ ॥ उपरोक्त स्थिति के समर्थन में आचार्यश्री ने समयसार ग्रन्थ की गाथा १४४ की टीका में भी निम्न शब्दों में कहा है “ प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करके, और फिर आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिए पर पदार्थ की प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों और मन के द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियों को मर्यादा में लेकर जिसने मतिज्ञान-तत्त्व को (स्वरूप को ) आत्मसन्मुख किया है, जो नानाप्रकार के नयपक्षों के अवलम्बन से होनेवाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता उत्पन्न करने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान-तत्त्व को भी आत्मसन्मुख करता हुआ 1" तथा इसप्रकार सर्वप्रथम प्रथम पद्धति के द्वारा “मैं ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ,” यह निर्णय करना आवश्यक है। आचार्यश्री ने भी कहा है कि “प्रथम श्रुतज्ञान ( द्रव्यश्रुत - जिनवाणी) के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करके” अर्थात् अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को भी ज्ञानी बनने के लिए अर्थात् सम्यग्दृष्टि बनकर आत्मानुभव प्राप्त करने के लिए अपने स्वरूप का निर्णय करने की दृष्टि से, रुचिपूर्वक, सर्वप्रथम जिनवाणी के अध्ययन एवं सत्समागम द्वारा पहली पद्धति अपनाकर, ऐसा ही निर्णय करना होगा कि 'मैं तो आत्मा मात्र ज्ञानस्वभावी हूँ; 'अन्य ज्ञेयमात्र मेरे जानने में तो Jain Education International passende For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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