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________________ ६८ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ भेदज्ञान पद्धति के दो प्रकार उपरोक्त भेदज्ञान करने की पद्धति के दो प्रकार हैं। एक तो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को ज्ञानी बनने के लिए अर्थात् सम्यग्दृष्टि बनने के लिए अपनाने योग्य है। इसके द्वारा आत्मा को सबसे भिन्न समझा जाता है अर्थात् पहिचाना जाता है और पहिचानकर रुचि की उम्रता एवं परिणति की शुद्धता पूर्वक "मैं ही समस्त ज्ञेयमात्र से भिन्न ज्ञायक़ परमात्मा हूँ” ऐसी श्रद्धा प्रगट होती है 1 दूसरी पद्धति ज्ञानी अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो जाने के बाद, पूर्णता प्राप्त करने के लिए सहजरूप से प्रगट होती है अर्थात् रुचि का वेग एवं परिणति की शुद्धता अपने आत्मतत्त्व की ओर झुक जाने के कारण पर की उपेक्षा हो जाने से सहज भेदज्ञान वर्तता रहता है । ज्ञानी के लिए उस ही को करने योग्य पुरुषार्थ कहा जाता है। इसके द्वारा ही आत्मा को पूर्णता की प्राप्ति होती है। अज्ञानी पहली पद्धति द्वारा अपनी निज आत्मा ( वह ध्रुवतत्त्व जिसको भेदज्ञान की पद्धति द्वारा सबसे भिन्न समझकर स्व के रूप में पहिचाना है) के स्वरूप को समझ लेता है तथा अपनी परिणति को सभी परज्ञेयों (जिनको पर्याय में मिले हुए जैसे दिखने पर भी अपने से भिन्न समझा है ) से हटाकर, परिणति को समेटकर आत्मसन्मुख करके, आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव आत्मानन्द प्रगट कर लेता है । तत्पश्चात् द्वितीय पद्धति का हो शरण लेता है अर्थात् अपनाता है । अतः मिथ्यादृष्टि को भी द्वितीय पद्धति के स्वरूप को समझना एवं उसको अपनाना अत्यन्त आवश्यक है । यह बात अवश्य है कि सर्वप्रथम अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को अपने आत्मा का संशय, विपरीतता एवं अस्पष्टता रहित यथार्थ स्वरूप, जब तक विस्तारपूर्वक समझ के द्वारा, स्पष्ट रूप से श्रद्धा में स्वपने नहीं बैठा होगा तबतक आत्मानुभव नहीं होगा; अतः द्वितीय पद्धति किंचित्मात्र भी सफल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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