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________________ ७० ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ आते हैं, लेकिन उनरूप मैं नहीं हूँ वे मेरे नहीं हैं, मैं तो ज्ञानस्वरूप रहता हुआ, अपने ही ज्ञान की सामर्थ्य द्वारा, उन ज्ञेयों के साथ कोई सम्बन्ध बनाये बिना, तटस्थरूप से, मात्र जाननेवाला ही हूँ।' ऐसे यथार्थ निर्णय के द्वारा उन ज्ञेयों के प्रति उपेक्षाबुद्धि उत्पन्न होकर अपने ज्ञायक स्वरूप में सिमट जाने की रुचि का उदय होता है। आत्मा की रुचि का (परिणति का) वेग, समस्त ज्ञेयमात्र की ओर से सिमटकर जब अपनी आत्मा में एकमेक होना चाहता है। उपरोक्त दशा प्राप्त जीव ही देशनालब्धि की अन्तिम स्थिति को पार करके प्रायोग्यलब्धि में पदार्पण करने योग्य बनता है । उपरोक्त गाथा नं. १४४ की टीका के उत्तर चरण अर्थात् मतिज्ञान-तत्त्व एवं श्रुतज्ञान-तत्त्व को मर्यादा में लाने का यही एकमात्र स्वाभाविक एवं सहज पुरुषार्थ है । ऐसा पुरुषार्थ कर्तृत्वबुद्धि के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता; वरन् कर्त्ताबुद्धि के अभावपूर्वक एवं ज्ञातृत्वबुद्धि के दृढ़तापूर्वक उत्पन्न होने पर ही उपरोक्त पुरुषार्थ का उदय होता है । उपरोक्त समस्त चर्चा का सार यह है कि आत्मार्थी को सर्वप्रथम अंतरंग में यथार्थ रुचि उत्पन्न करके जैसे बने वैसे अर्थात् अभ्यास एवं सत्समागम के द्वारा अपनी रुचि को सब ओर से समेटकर मात्र यह निर्णय करने के लिए कटिबद्ध होकर निर्णय करने में लगाना चाहिए कि "मैं ज्ञानस्वभावी आत्मा कैसे हूँ” । तथा ज्ञेयमात्र के प्रति परपने के साथ अत्यन्त उपेक्षाबुद्धि उत्पन्न होकर ज्ञानस्वभावी आत्मा अपनापन करने के लिए अत्यन्त उत्साहवान् होना चाहिए कि उसके बिना चैन नहीं पड़े। ऐसी स्थिति जब तक उत्पन्न नहीं हो तब तक एकमात्र इस ही निर्णय करने में संलग्न रहना चाहिए कि "मैं ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ" । यह एकमात्र आत्मानन्द अर्थात् मोक्षमार्ग प्राप्त करने का उपाय है। कहा भी है “काम एक आत्मार्थनों बीजो नहीं मनरोग" आचार्यश्री अमृतचन्द्र ने भी कलश २३ में इसही आशय का समर्थन किया है "अयि कथमपि मृत्वा तत्वकौतूहली सन् अनुभव भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् । Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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