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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (५७ यह तो हम समझ ही चुके हैं कि मेरे आत्मद्रव्य में ही दो प्रकार के भाव हैं । एक तो स्थाईभाव और दूसरा अस्थाईभाव, जिसको हम पर्याय के रूप में समझ चुके हैं। द्रव्य तो “उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तंसत्” है, अत: उपरोक्त नित्यभाव एवं अनित्यभाव का समुदायरूप ही द्रव्य है। उसमें स्थाईभाव ध्रुवभाव तो मैं जीवतत्त्व हूँ। छहों तत्त्वों में अजीवतत्त्व के सम्बन्ध में प्रश्न हो सकता है कि अजीव तो मेरी उत्पादव्यय वाली पर्याय में भी नहीं है, क्योंकि चेतना गुण से रहित अजीव तत्त्व के रूप में मेरे द्रव्य में कैसे रह सकता है? अत: वह मेरा भाव नहीं होने से मेरा तत्त्व क्यों कहा जाना चाहिए? समाधान है, कि सात तत्त्वों में अजीवतत्त्व का समावेश, इस कारण किया गया है कि समस्त अजीव द्रव्यों का ज्ञान परज्ञेय के रूप में आत्मा की ज्ञान पर्याय में होता है । ज्ञानपर्याय आत्मा की पर्याय है, अत: उसको भी तत्त्वों में सम्मिलित करना आवश्यक था। आत्मा में अजीवद्रव्यों का ज्ञान होने पर अज्ञानी आत्मा उनमें एकत्व करता है। अत: उसके सम्बन्ध में यथार्थ स्थिति समझे बिना तत्त्वार्थज्ञान अधूरा रह जाता और उसके बिना ज्ञान श्रद्धान भी यथार्थता को कैसे प्राप्त होते? अजीवतत्त्व मेरे जीवतत्त्व के अतिरिक्त जो कुछ भी मेरे ज्ञान में ज्ञात होते हैं; वे सभी मेरे से भिन्न परज्ञेय हैं। अत: (१) मेरे से भिन्न हैं (२) वे सभी अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं (३) वे स्वयं अपने-अपने में “उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्” हैं (४) उन सबके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मेरे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से भिन्न हैं, इत्यादि अनेक प्रकारों से अपने जीवतत्त्व का अस्तित्व उस सबसे भिन्न जानकर, मानकर उन सबके परिणमनों के प्रति उपेक्षाबुद्धि जागृत करें। यही अजीवतत्त्व की यथार्थ समझ है और यहीं समझना पर्याप्त है। प्रश्न - वे परज्ञेय कौन-कौन हैं? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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