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________________ ५६) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ विषेशात्मक है अत: उनको विषय (ज्ञान) करने वाला आत्मा का उपयोग भी दो प्रकार का होना ही चाहिए। अत: ज्ञेयों का अस्तित्व, भेद किए बिना सामान्यरूप से अभेदसामान्य को जाने उसको दर्शनोपयोग कहा गया है एवं उन्हीं ज्ञेयों को भेद-प्रभेद सहित अर्थात् विशेषों सहित जाने उसको ज्ञानोपयोग कहा है। आत्मा ज्ञान भी है एवं ज्ञेय भी है। इसप्रकार आत्मा की सामान्य विशेषात्मक जानने की प्रक्रिया ही उपयोग है, इसी को अभेदरूप से चेतना कहा है। इसप्रकार आत्मा अर्थात् जीवतत्त्व के स्वरूप को समझने के लिए लक्षण चेतना कहा है। प्रश्न - जिनवाणी में आत्मा को ज्ञानस्वरूपी ही क्यों कहा है, दर्शनोपयोगी होने की मुख्यता क्यों नहीं की गई? समाधान - दर्शनोपयोग का विषय सामान्य होने से वह बुद्धिगम्य नहीं हो पाता। क्योंकि दर्शनोपयोग का जन्म ही मात्र विषय परिवर्तन में होता है, सामान्यांश बुद्धिगम्य नहीं हो पाने के कारण दर्शनोपयोग के माध्यम से आत्मा पहिचानने में नहीं आ सकता। ज्ञानोपयोग का विषय, विशेष अर्थात् भेदों सहित होने के कारण वह बुद्धिगम्य होता है अत: मात्र ज्ञान के व्यापार अर्थात् ज्ञानोपयोग से ही आत्मा की पहिचान हो सकना संभव है। यही कारण है कि जिनवाणी में ज्ञान के द्वारा ही आत्मा की पहिचान होने का विधान है। इसको ही आत्मा को पहिचानने के लिए लक्षण बताया गया है, समयसार में पद-पद पर आत्मा को ज्ञानस्वभावी के नाम से ही सम्बोधित किया है। जीवतत्त्व से अतिरिक्त छह तत्त्वों के सम्बन्ध में उपरोक्त चर्चा के आधार से.हमने जीवतत्त्व का स्वभाव जानकर, अपने आत्मद्रव्य में ही प्रगट जीवतत्त्व का स्वरूप समझा। अब हमारे आत्मद्रव्य में ही प्रगट बाकी छहतत्त्वों के सम्बन्ध में भी समझना आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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