SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ अब द्रव्य-गुण- पर्याय युक्त समग्र वस्तु अर्थात् आत्मा को समझ लेने पर भी उनमें से "मैंपना” किसमें स्थापन किया जावे, इसके लिए विधि निषेध की दृष्टिपूर्वक दोनों पक्षों की अपेक्षाओं को समझते हुए आत्मतत्त्व का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की विधि का नाम ही नयज्ञान है प्रमाण द्वारा ग्रहण की हुई वस्तु के दोनों पक्षों में से, "मैंपना” किसमें माना जावे, इस उद्देश्य से हेय उपादेय की बुद्धिपूर्वक यथार्थ निर्णय करना होता है । इसी विधि का नाम नयज्ञान के द्वारा भेदज्ञान करने की पद्धति कही गई है। जब आत्मा में एक ही साथ द्रव्यपक्ष और पर्यायपक्ष दोनों विद्यमान हैं। तो आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझने के लिए दोनों में से किसी एक को मुख्य करना ही होगा, उस समय दूसरे पक्ष को गौण रह ही जावेगा, ऐसा करे बिना उसका स्वरूप समझ में नहीं आ सकेगा । अत: जब द्रव्यपक्ष को मुख्य बनाया जाता है, उस समय की ज्ञानपर्याय को द्रव्यार्थिकनय कहा जाता है और जब पर्यायपक्ष के द्वारा वस्तु को समझने के लिए, पर्यायपक्ष को मुख्य किया जाता है, उस समय द्रव्यपक्ष गौण रह जाता है तथा उस ज्ञानपर्याय का नाम पर्यायार्थिकनय है । इसप्रकार द्रव्यपर्यायात्मक एक ही वस्तु को समझने के लिए उक्त पद्धति का प्रयोग अनिवार्य है । इसप्रकार मुख्य गौण व्यवस्था के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझना ही नयज्ञान का यथार्थ प्रयोग है। इसलिए नय आदि का ज्ञान विद्वानों के लिए है, ऐसा समझकर इस पद्धति की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि इस पद्धति के यथार्थ उपयोग के बिना आत्म स्वरूप को समझना संभव नहीं है द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु अर्थात् आत्मा का स्वरूप, द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिकनय के माध्यम से समझ लेने पर भी, आत्मिक शान्ति अर्थात् वीतरागता प्राप्त करने रूप अपना प्रयोजन तो सिद्ध नहीं होता; अतः उसकी सिद्धि के लिये अर्थात् उसको प्राप्त करने के लिए, अध्यात्म पद्धति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy