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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (४१ हो, सब ही सैनी पंचेन्द्रिय होने से मन के द्वारा निर्णय तो कर ही सकते हैं, उनके सामने दोनों परिस्थितियाँ ज्ञान में उपस्थित हैं, ऐसी स्थिति में इनका भेदज्ञान करके यथार्थ निर्णय करने की अनिवार्यता तो सबको है ही। सामान्य-विशेषात्मक वस्तु के स्वरूप की यथार्थ समझ एवं निर्णय करने की पद्धति का नाम ही तो “प्रमाणनयैरधिगम:” है। यहाँ ध्रुवपक्ष को सामान्य एवं अध्रुवपक्ष को विशेष कहा है। इससे यह तो निश्चय होता है कि प्रमाण-नय का नाम सुनकर घबड़ाना नहीं चाहिए, यह तो आत्मस्वरूप को समझने की एक पद्धतिमात्र है; जिसका प्रयोग प्रत्येक सैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी कर सकता है और करता भी है। इसलिए यह पद्धति कठिन कैसे हो सकती है? अत: उनका स्वरूप समझना चाहिये। प्रमाणनयैरधिगमः वस्तु अर्थात् आत्मा में दो पक्ष निरन्तर विद्यमान हैं एक तो नित्यपक्ष . जिसको अध्यात्म में द्रव्य के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है, इसही नित्यपक्ष को ध्रुव, त्रिकाली, ज्ञायक आदि अनेक नामों से भी सम्बोधित किया गया है। इसी प्रकार अनित्य पक्ष को अध्यात्म में पर्याय के नाम से सम्बोधित किया गया है, इसही को अनित्यभाव, अध्रुवभाव, पलटजानेवालाभाव, क्षणभंगुरभाव आदि अनेक नामों से भी जिनवाणी में सम्बोधित किया गया है। हम भी वर्तमान प्रकरण में नित्यभाव को द्रव्य के नाम से तथा अनित्यभाव को पर्याय के नाम से सम्बोधित करेंगे। वस्तु अर्थात् आत्मा तो द्रव्य एवं पर्याय स्वरूप; एकसाथ एक ही समय विद्यमान है, अत: सर्वप्रथम दोनों स्थितियों सहित सम्पूर्ण वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझना पड़ेगा। उसको समझने की विधि का नाम ही प्रमाण ज्ञान है अर्थात् द्रव्य गुण पर्याय से युक्त सम्पूर्ण वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने की विधि को ही प्रमाण द्वारा वस्तु का निर्णय करना कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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