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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (४३ के निश्चयनय एवं व्यवहारनयों का प्रयोग किया जाना आवश्यक है। निश्चय, व्यवहारनय का मूल उद्देश्य ही मात्र अपना प्रयोजन सिद्ध कराना है। आत्मा का प्रयोजन तो एकमात्र वीतरागता अर्थात् रागद्वेष के अभाव से उत्पन्न होनेवाली निराकुलतारूपी शान्ति, सुख प्राप्त करना ही है। इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए द्रव्य, गुण, पर्यायात्मक वस्तु में से जिस समय जिसको मुख्य करना होता है, उसी को निश्चय कहा जाता है और अन्य अपने प्रयोजन के लिए उपयोगी नहीं होने से स्वत: गौण हो जाते हैं, लेकिन वे आत्मा में ही विद्यमान रहने से उनको भी आत्मा के ही भाव कह दिया जाता है । अत: ऐसे भावों को व्यवहार कहा जाता है । इसप्रकार अपेक्षाकृत जानने वाले ऐसे ज्ञान को निश्चयनय तथा व्यवहारनय कहा जाता है । इसप्रकार द्रव्यपर्यायात्मक स्वद्रव्य में ही अपने वीतरागता रूपी प्रयोजन की सिद्धि के लिए, मुख्य गौण करता हुआ आत्मार्थी यथार्थ मार्ग समझ लेता है। उपरोक्त विषया की विस्तार से चर्चा सुखी होने के उपाय भाग-२ पृष्ठ ९६ से "प्रमाणनयैरधिगमः" शीर्षक प्रकरण के अन्तर्गत की गई है तथा इसी पुस्तक के भाग-३ में पृष्ठ ४७ से ६१ तक “नयज्ञान एवं उसकी उपयोगिता" प्रकरण में एवं इसी भाग के पृष्ठ ८८ से १०५ तक “निश्चयनय एवं व्यवहारनय" शीर्षक प्रकरण में की गई है । आत्मार्थी को उपरोक्त प्रकरणों के अध्ययन द्वारा इस विषय को स्पष्ट समझ लेना आवश्यक है। अपने आत्मस्वरूप की यथार्थ स्थिति समझने के लिए आत्मा के द्रव्य एवं पर्याय दोनों पक्षों की स्थिति, सम्बन्ध एवं अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए किसको मुख्य किया जावे और किसको गौण किया जावे एवं हेय उपादेय. स्थिति का यथार्थ ज्ञान करे बिना पुरुषार्थ की यथार्थ दिशा कैसे बन सकेगी? जिनवाणी में कथन तो अनेक स्थानों पर अनेक अपेक्षाओं को लेकर आते हैं। अपने प्रयोजन की सिद्धि की मुख्यता से उन कथनों के अभिप्राय को समझने के लिए उक्त नयादि की सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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