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________________ ( ३१ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) अर्थ परीक्षा करके भेदज्ञानी पुरुषों ने अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दूषणों से रहित चेतनत्व को जीव का लक्षण कहा है, वह योग्य है । वह चैतन्य लक्षण प्रगट है, अपने जीव के भूतार्थ स्वरूप को प्रगट किया है और वह अचल है चलाचलता रहित सदा विद्यमान है । जगत उसी का अवलम्बन करो ।” इसके अतिरिक्त समस्त जैन शासन में भी ज्ञान - चेतना - उपयोग आदि अनेक नामों से चेतना को ही जीव का (आत्मा का) लक्षण कहा है, सभी नाम मात्र ज्ञान के ही हैं । आत्मा का ऐसा असाधारण लक्षण यह ज्ञान ही है, जिसके द्वारा हम इस आत्मा को कहीं भी कैसी भी दशा में हो, खोज सकते हैं। अपनी आत्मा को कहाँ खोजना चाहिए ? सारा विश्व (लोक) छह द्रव्यों का समुदाय है । जाति की अपेक्षा द्रव्य छह प्रकार के होते हुए भी संख्या में अनन्तानन्त हैं । इन सबमें से पहले तो जीवद्रव्य को खोजना चाहिए। उसके लिए ज्ञान लक्षण के द्वारा खोजने पर, अन्य पाँच प्रकार के अचेतन द्रव्यों में तो ज्ञान है ही नहीं, अतः अनन्तानन्त द्रव्य में से जीवद्रव्यों को तो सरलतापूर्वक अलग कर लिया गया। इसप्रकार के भेदज्ञान द्वारा हमको अनन्त जीवद्रव्यों में से अकेले अपने जीवद्रव्य को ही खोजना बाकी रह जाता है। अब उन जीव द्रव्यों में से भी मात्र अकेले अपने आत्मा को भिन्न करने के लिये भी उपर्युक्त लक्षण चाहिये, अन्यथा हम भिन्न कैसे समझ सकेंगे? इसप्रकार सब जीवों से भिन्न करने के लिये सुख अथवा दुःख को लक्षण मानकर हम उन अन्य जीवों से अपने को भिन्न समझ सकेंगे । हमको प्रत्यक्ष अनुभव है कि मेरे सुख अथवा दुःख का वेदन मुझे तो होता है, लेकिन अन्य जीवों को मेरा वेदन, ज्ञान में अर्थात् जानकारी में तो आ जाता है लेकिन वेदन नहीं होता। ऐसा तो हम सबको भी परिचय है कि अन्य हमारे निकट से निकट संबंध वाले जीव के वेदन का ज्ञान होने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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