SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ यह सिद्ध होता है कि अन्य सभी जीवद्रव्य मेरे ज्ञान में ज्ञात होते ये भी, उनके सुख दुःख मेरे को नहीं होते इसलिये वे मेरे से भिन्न हैं। तथा मेरा ज्ञान मेरे को जिसप्रकार स्व के रूप में जानता है, उसीप्रकार अन्य जीवों को स्व के रूप में नहीं जानता वरन् परज्ञेय के रूप में जानता है । तथा हरएक द्रव्य अपने-अपने स्वक्षेत्र अर्थात् अपने-अपने प्रदेशों में ही विद्यमान रहते हैं एवं व्यापते हैं अत: मेरे में कोई भी अन्य द्रव्य में व्याप ही नहीं सकता, सभी द्रव्य अपने-अपने स्वक्षेत्र में रहकर ही परिणमन करते हैं, इन अपेक्षाओं से स्पष्ट होता है कि अन्य जीवों में से मेरा जीव भिन्न अस्तित्व रखने वाला पदार्थ है । इसप्रकार अनन्त जीवों से अपनी आत्मा को भिन्न समझ सकेंगे, यही अन्य जीवों से अपने जीव की भिन्नता का भेदज्ञान इसप्रकार लोक के अनन्तानन्त द्रव्यों एवं जीवों में खोए हुए अपने आत्मा को खोजकर स्वआत्मा के रूप में समझ लिया जाता है तथा अन्य सभी द्रव्यों एवं जीवों में सहज रूप से परपना आ जाता है अर्थात् ये सब (अन्य जीव द्रव्यों सहित) अनन्तानन्त द्रव्य मेरे आत्मा के लिए तो पर हैं— ऐसी श्रद्धा जागृत हो जाती है। इस विषय की विस्तार से चर्चा आप इसी पुस्तक के भाग-१ में पढ़ चुके हैं, फिर भी पुनरावृत्ति के लिए भाग-१ की विषय सूची के माध्यम से इस निर्णय के लिए आवश्यक विषयों का पुन: अध्ययन कर वस्तुव्यवस्था एवं आत्मा के ज्ञान-स्वभाव के सम्बन्ध में समझकर, यथार्थ निर्णय कर लेना चाहिए। __अपने द्रव्य में भी स्वतत्त्व की खोज शंका - उपरोक्त पद्धति से अनन्तानन्त द्रव्यों में से अपने आत्मद्रव्य को भिन्न खोजकर अपने द्रव्य के रूप में पहिचान लिया गया। लेकिन जब अपने आत्म द्रव्य में भी देखते हैं तो वहाँ भी आत्मा हमको क्रोधी, मानी, मायावी आदि अनेक भावों के रूप में ही दिखता है। आगम कहता है कि आत्मा तो ज्ञानस्वभावी है, लेकिन हमको तो ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy