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"उपयोगो लक्षणं"
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आचार्यश्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में आत्मा का लक्षण “उपयोग" बताया है। उपयोग अर्थात् " ज्ञान - दर्शन का व्यापार” यह आत्मा का ऐसा लक्षण है । जो आत्मा में ही मिलता है, अन्य किसी में मिलता नहीं और ज्ञान कभी भी आत्मा से अलग होता नहीं, अर्थात् आत्मा उसके बिना रह नहीं सकता। साथ ही ये लक्षण सर्वविदित भी है, जैसे मृतक देह । मृतक देह में जब तक ज्ञानधारी आत्मा (जीव) विद्यमान था, तब तक देखने-जानने की क्रिया भी उसमें प्रत्यक्ष देखी जाती थी और जब वह ज्ञानधारी आत्मा इस शरीर से निकल गया तो वही शरीर जलाकर भस्म करने योग्य मान लिया गया। अतः इस दृष्टान्त से स्पष्ट है कि जो शरीर में से निकला है उसमें ही ज्ञान था, इसीकारण उसके निकलते ही ज्ञानरहित दिखने लगता है इन सब तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि आत्मा को खोज निकालने के लिए सर्वविदित एवं निर्दोष लक्षण ज्ञान (उपयोग ) ही है ।
( सुखी होने का उपाय भाग - ४
लक्षण वह ही निर्दोष माना जाता है, जिसमें अतिव्याप्ति, अव्याप्ति एवं असंभवी ऐसा किसी प्रकार का कोई दोष नहीं लगता हो ? आत्मा का ज्ञान लक्षण ऐसा है जो आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी में नहीं पाया जाता, अत: अतिव्याप्ति दोष नहीं लगता तथा आत्मा चाहे निगोद दशा में पहुँच जावे अथवा सिद्ध दशा को प्राप्त हो, कहीं भी आत्मा एक समय के लिए भी ज्ञान से रहित नहीं रहता, अतः अव्याप्ति दोष से भी रहित है और ज्ञान आत्मा में होता ही है, अतः असंभव दोष से भी रहित है इसप्रकार हरएक दृष्टिकोण से ज्ञान ही आत्मा का निर्दोष एवं सर्वविदित लक्षण सिद्ध होता है । इसी का समर्थन समयसार की गाथा ४९ में निम्नप्रकार से किया है
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"जीव चेतना गुण शब्द रस-रूप-गंध-व्यक्ति विहीन है । निर्दिष्ट नहिं संस्थान, उसका ग्रहण नहिं है लिंग से ॥ " कलश ४२ के उत्तरार्ध में भी कहा है -
" इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्याप्ति वा । व्यंजितजीवतत्वमचलं चैतन्यमालंब्यताम् ।। "
व्यक्तं
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