SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( २३ भूल भी ज्ञान में आ गई है, विचारता है कि “भ्रम से भूलकर प्राप्त पर्याय ही में तन्मय हुआ, लेकिन इस पर्याय की तो थोड़े ही काल की स्थिति है।” इन विचारों के द्वारा अपनी मान्यता की विपरीतता ख्याल में आने से, उसे यह विचार भी आया कि अभी तक का काल व्यर्थ गया । अतः अब तो वह उस देशना को समझकर ग्रहण करने में सर्वोच्च प्राथमिकता देने लगता है। वर्तमान सत्समागम की अत्यधिक दुर्लभता भी विचार में आ जाने से आत्मार्थी, एकमात्र आत्मा को प्राप्त करने का लक्ष्य बनाकर, सांसारिक सभी प्रसंगों को अत्यन्त गौण करते हुए एकमात्र आत्मदर्शन प्राप्त कर लेने के साधनों को ही सर्वोत्कृष्ट प्राथमिकता देते हुए तीव्र रुचिपूर्वक पुरुषार्थ करता है। ऐसा जीव ही आचार्य अमृतचन्द्र कृत आत्मख्याति में समागत कलश नं. २३ के निम्न भाव को भी सार्थक करेगा कि " अयि कथमपि मृत्वा तत्त्व कौतूहली सन् अर्थात् हे भाई ! तू किसी प्रकार भी महाकष्ट से अथवा मरकर भी तत्त्वों को कौतूहली होकर देख ।” और आचार्य पद्मनन्दि ने ऐसे जीव को ही " निश्चितं स भवेद्धव्यो भावि निर्वाण भाजनं अर्थात् उस ही को निकट भव्य एवं भावी निर्वाणभाजन कहा है । " 1 आचार्यश्री योगीन्द्रदेव के शिष्य प्रभाकर भट्ट भी ऐसी ही भावना वाले शिष्य थे, उनकी प्रार्थना पर करुणा करके आचार्यश्री ने परमात्मप्रकाश ग्रन्थ की रचना की । परमात्मप्रकाश ग्रन्थ की गाथा ८- ९-१० की टीका के निम्न वाक्यों से भी यह बात स्पष्ट है “भगवन् ! मैं तो संसार भ्रमण करते-करते त्रस्त हो चुका हूँ । मुझे सब कुछ मिला, लेकिन एकमात्र शुद्धात्मतत्त्व की प्राप्ति नहीं हुई, अतः मुझे मेरे शुद्धात्मतत्त्व की प्राप्ति कैसे हो ? वह उपाय बताइये, मुझे अब एक भव भी धारण नहीं करना है - " उपरोक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि सन्यक्त्वसन्मुख पात्रजीव ऐसा होना चाहिये, जो अन्तर में संसार - देह - भोगों से विरक्त हो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy