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________________ ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ इसी के समर्थन में श्रीमद् राजचन्द्र के निम्न वाक्य भी मननीय काम एक आत्मार्थनों, बीजो नहिं मनरोग । कषायनी उपशांतता मात्र मोक्ष अभिलाष । भवे खेद प्राणीदया, त्यां आत्मार्थ निवास ॥ सम्यक्त्वसन्मुख जीव कहो अथवा आत्मार्थी जीव कहो दोनों ही एकार्थवाची हैं। २२ ) हैं - तथा - ये - जिस जीव के हृदय में उपरोक्त प्रकार की भावना जागृत हुई हो, वह जीव ही सम्यक्त्व प्राप्त करने की यथार्थ पात्रता रखता है । अन्तर में ऐसी पात्रता प्रगट हुए बिना किसी भी जीव को आत्मदर्शन करने योग्य पुरुषार्थ प्रारम्भ नहीं हो सकता । जिस जीव को ऐसे भाव जाग्रत हुये हों कि “ अहो मुझे तो इन बातों की खबर ही नहीं, मैं भ्रम से भूलकर प्राप्त पर्याय ही में तन्मय हुआ, परन्तु इस पर्याय की तो थोड़े ही काल की स्थिति है, तथा यहाँ मुझे सर्व निमित्त मिले हैं, इसलिए मुझे इन बातों को बराबर समझना चाहिए क्योंकि इनमें तो मेरा ही प्रयोजन भासित होता है।" हम इन भावों को अपने अन्तर में उतारकर टटोलें तो ज्ञात होगा कि जिसके हृदय में ऐसा भाव आया है कि "मुझे तो इन बातों की खबर ही नहीं" मात्र इन भावों से ही जीव की पात्रता ख्याल में आ जाती है। ऐसा जीव ही देशना को प्राप्त कर उग्र पुरुषार्थ एवं मनोयोगपूर्वक समझने का प्रयास करेगा, अपनी वर्तमान पर्याय की नश्वरता भी उसको ख्याल में आ गई है कि "इस पर्याय की तो थोड़े ही काल की स्थिति है, ” अत: ऐसी भावना पूर्वक जो देशना के द्वारा सुनेगा; उसको उम्र रुचि पूर्वक समझने का प्रयास करेगा । अब तो उसको एक-एक क्षण भी अत्यन्त मूल्यवान लगने लगा है तथा विचार आता है कि इस देह का कोई भरोसा तो है नहीं कि कब छूट जावे और मेरी साधना अधूरी रह जावे । अतः उसकी रुचि का वेग अति उग्र हो जाता है। साथ ही उस जीव को अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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