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( सुखी होने का उपाय भाग - ४
गया हो और एकमात्र आत्मार्थ पोषण की सर्वोच्च प्राथमिकता बनाली हो; सफलता प्राप्त करने के लिए जिसका वीर्य (पुरुषार्थ) उछाले मारता हो; दृढ़ निश्चयवान् हो कि मैं तो इस पर्याय में ही निश्चितरूप से आत्मदर्शन प्राप्त करूँगा। ऐसा जीव ही उक्त देशना में से “मैं एक ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ” इस तथ्य को बाह्यदृष्टि से और अन्तर्दृष्टि से खोजने में संलग्न हो जावेगा और अवश्य आत्मा को प्राप्त कर लेगा । ज्ञानस्वभावी आत्मा को खोजने की पद्धति
आचार्यश्री ने उक्त टीका में आत्मदर्शन प्राप्त करने की पद्धति बताई है । उसमें सर्वप्रथम ही यह कहा है कि “प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय करके” अर्थात् सर्वप्रथम करने योग्य कार्य एकमात्र ज्ञानस्वभाव आत्मा का निर्णय ( निश्चय) करना ही है ।
उपरोक्त वाक्य से इस समस्या का समाधान प्राप्त हो जाता है कि सर्वप्रथम हमको आत्मानुभव के लिए क्या करना चाहिए ? साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि दया दान, पूजा-भक्ति, स्वाध्याय, संयम, व्रतादि क्रियायें पुण्य प्राप्ति के लिए कार्यकारी हैं; लेकिन आत्मानुभव के लिये तो यथार्थ निर्णय ही कार्यकारी हो सकेगा। यह बात अवश्य है कि देशनालब्धि के पूर्व विशुद्धिलब्धि भी अवश्यम्भादी है और उपरोक्त पात्रता वाले जीव के अत्यन्त कोमल परिणाम होने से विशुद्धिलब्धि तो वर्तती ही है। उसे देव - शास्त्र - गुरु के प्रति भक्ति, शास्त्र अध्ययन के साथ-साथ दया- दानादि के भाव भी होते ही हैं; फिर भी वह उन भावों को आत्मानुभव के लिए कार्यकारी नहीं मानता। रुचिपूर्वक अपनी आत्मा के अनुसंधान में संलग्न रहता है कि "मेरा आत्मा ज्ञानस्वभावी कैसे है ?” तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वसन्मुख जीव को सर्वोच्च प्राथमिकता पूर्वक आत्मानुभव के लिए करने योग्य कार्य तो यही है कि “मैं ज्ञानस्वभावी आत्मा कैसे हूँ यह निर्णय करना ।”
उपरोक्त कथन से यह भी सारांश निकलता है कि समस्त द्वादशांग वाणी का सार भी मात्र यही निर्णय कराना है कि यह आत्मा ज्ञानस्वभावी
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