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( सुखी होने का उपाय भाग - ४
आगामी चर्चा का मुख्य विषय होगा; क्योंकि उपरोक्त टीका में देशनालब्धि से प्रारम्भ कर, प्रायोग्यलब्धि एवं करणलब्धिपूर्वक सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मदर्शन प्राप्त करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया स्पष्ट कर दी है ।
विस्तारपूर्वक समझने के लिए उपरोक्त टीका को निम्नप्रकार से चार चरणों में बांटा जा सकता है
“प्रथम श्रुतज्ञानके अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव
१. देशनालब्धि आत्मा का निश्चय करके”
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२. प्रायोग्यलब्धि
" और फिर आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिए, पर-पदार्थ की प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों और मन के द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियों को मर्यादा में लेकर, जिसने मतिज्ञान-तत्त्व को ( मतिज्ञान के स्वरूप को) आत्मसन्मुख किया है; तथा जो नानाप्रकार के नयपक्षों के आलम्बन से होने वाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता उत्पन्न करने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान-तत्त्व को भी आत्मसन्मुख करता हुआ ।”
३. करणलब्धि - " अत्यन्त विकल्प रहित होकर, तत्काल निजरस से ही प्रगट होता हुआ आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनाकुल, केवल एक, सम्पूर्ण ही विश्व पर मानों तैरता हो – ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त विज्ञानघन परमात्मा समयसार का जब आत्मा अनुभव करता है।” ४. निर्विकल्प आत्मानुभूति
सम्यक्तया दिखाई देता है और ज्ञात होता है।”
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इसप्रकार उपरोक्त टीका हमारे प्रयोजनभूत विषय को सर्वांगीण स्पष्ट करने वाली है । अतः सर्वप्रथम देशनालब्धि के प्रकरण की मुख्यता से चर्चा प्रारम्भ की जा रही है
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“ तब उसी समय आत्मा
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