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प्रारम्भिक (यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण)
उपरोक्त विषय में प्रथम चरण के रूप में “यथार्थ निर्णय कैसे हो" इस विषय पर चर्चा करेंगे।
श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य ने आत्मार्थी को यथार्थ निर्णयपूर्वक सविकल्प आत्मज्ञान प्राप्तकर निर्विकल्प आत्मानुभूति प्राप्त करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया गूढ़ एवं गम्भीरतापूर्वक समयसार गाथा १४४ की टीका में प्रतिपादित की है, जिसका पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद निम्नप्रकार प्रस्तुत है -
___ "प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय करके और फिर आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिए पर-पदार्थ की प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियों को मर्यादा में लेकर जिसने मतिज्ञान तत्त्व को (मतिज्ञान के स्वरूप को) आत्म सन्मुख किया है तथा जो नानाप्रकार के नयपक्षों के आलम्बन से होने वाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता उत्पन्न करने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान-तत्त्व को भी आत्म सन्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्परहित होकर, तत्काल निजरस से ही प्रगट होता हुआ आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनाकुल, केवल एक, सम्पूर्ण ही विश्व पर मानों तैरता हो - ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय अनन्त विज्ञानधन परमात्मारूप समयसार का जब आत्मा अनुभव करता है, तब उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है (अर्थात् उसकी श्रद्धा की जाती है) और ज्ञात होता है। इसलिए समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।" ।
उपरोक्त गाथा की टीका का “प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञान स्वभाव आत्मा का निश्चय करके" अंश ही हमारी इस पुस्तक माला में
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