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________________ १८) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ आत्मा छह द्रव्यों से तो सभीप्रकार से अत्यन्त भिन्न है ही, उनको भिन्न करना नहीं है, वे तो प्रत्यक्ष भिन्न ही है; मानों तो भी भिन्न हैं और नहीं मानों तो भी वे तो भिन्न ही हैं और भिन्न ही रहेंगे। अत: वे द्रव्य आत्मा से भिन्न होते हुए भी, मात्र ज्ञान के माध्यम से ज्ञेय के रूप में आत्मा के ज्ञान में आ जाने से आत्मा से सम्बन्धित हो जाते हैं; क्योंकि आत्मा में एक ज्ञान ही ऐसा गुण है जो स्व-पर का ज्ञायक है। प्रवचनसार गाथा १५५. की टीका में भी यही कहा है कि “वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोग विशेष है। अत: उपयोग परलक्ष्यी होने पर ज्ञेयों का ज्ञान तो होगा ही, ज्ञान में ज्ञेय का तो अंश भी नहीं आता, वास्तव में वह तो ज्ञान की पर्याय की उस समय की योग्यता का प्रकाशन है, मेरी पर्याय अपनी योग्यता से ज्ञेय के आकार परिणमी है; अत: वह तो मेरी पर्याय ही ज्ञात हो रही है। इसप्रकार ज्ञेयों का ज्ञान होने पर भी उनका यथार्थ स्वरूप समझ ले तो, ऐसी श्रद्धा जागृत हो जाती है कि उनका मेरे से कोई सम्बन्ध नहीं है और उनके प्रति सहज ही उपेक्षाबुद्धि हुए बिना नहीं रह सकती। ज्ञेयमात्र के प्रति उपेक्षाबुद्धि खड़ी होते ही उपयोग के लिए आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई आश्रयभूत नहीं रहता, अत: वह उपयोग, आत्मदर्शन करने की पात्रता उत्पन्न कर लेता है और ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय की अभेदता कर आत्मा के आनन्द की अनुभूति कर लेता है। ऐसे जीव की बाह्य परिणति भी सहज ही वैराग्यमय हो जाती है। संसार, देह, भोगों के प्रति अंतर में विरक्ति वर्तने से बाह्य जीवन भी पवित्र एवं वैराग्यमय हो जाता है। देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अत्यन्त प्रीति-भक्ति तथा जिनवाणी का अध्ययन ही उसकी जीवनचर्या बन जाती है। जिसकी परिणति में ऐसा परिवर्तन नहीं आया हो तो उसको जिनवाणी का अभ्यास वर्तते हुए भी, यथार्थत: उसको ज्ञान-ज्ञेय का विभागीकरण अन्तर में नहीं हुआ है। ऐसा स्पष्टत: ज्ञात होता है। इसप्रकार उक्त अध्ययन का यथार्थ फल आत्मानुभूति होना चाहिए। - नेमीचन्द पाटनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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