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सार संक्षेप)
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नहीं होता, वरन् दोनों की मैत्री बनी रहती है इत्यादि अनेक विषयों की स्पष्टता द्वारा दृष्टि में निर्मलता स्पष्टता होकर मार्ग के प्रति निःशंकता उत्पन्न हो, ऐसा प्रयास भाग ३ में किया गया है। प्रसंगोपात्त पुरुषार्थ की यथार्थ परिभाषा, आत्मकल्याण में इन्द्रिय ज्ञान से भी मनजन्य ज्ञान विशेष बाधक कैसे है ? आदि विषयों का भी इसमें विवेचन किया गया
है ।
इसप्रकार तीनों भागों के विषय का सार-संक्षेप है। आत्मज्ञान प्राप्त करने योग्य कुछ आवश्यक स्पष्टीकरण उपरोक्त तीनों भागों के विषयों द्वारा भले प्रकार से निर्णय करने के पश्चात् भी रह जाते हैं, उनका विवेचन प्रस्तुत पुस्तक भाग-४ में करने का प्रयास किया गया है।
भाग- ४ का विषय प्रवेश
प्रस्तुत भाग के विषय का मूल आधार “ आत्मा ज्ञानस्वभावी ही है" ऐसा दृढ़ निश्चय प्रगट करने के लिए प्रवचनसार ग्रन्थ के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन एवं ज्ञेयतत्त्व - प्रज्ञापन अधिकारों के आधार पर विस्तारपूर्वक ऐसा स्पष्टीकरण करने की चेष्टा की गई है कि ज्ञेयों का ज्ञान भी वास्तव में ज्ञान की ही पर्याय है; ज्ञान के स्व-पर- प्रकाशक स्वभाव का ही प्रकाशन है। आत्मा तो ज्ञानस्वभावी ही रहता है। यथार्थतः आत्मा ही ज्ञेय है, आत्मा ही ज्ञाता है और आत्मा ही ज्ञान है; इन तीनों की अभेद - अनुभूति ही वास्तव में आत्मा की अनुभूति है ।
उपरोक्त विषय को विस्तारपूर्वक स्पष्ट करने के लिए आगम के आधारपूर्वक अनेक दृष्टिकोणों से इस पुस्तक में चर्चा की गई है, जिसकी जानकारी विषय सूची से प्राप्त करनी चाहिए ।
इसप्रकार प्रस्तुत पुस्तक के चारों भागों का अध्ययन रुचि एवं एकाग्रतापूर्वक करने से आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान अवश्य हो जाना चाहिए। आत्मा ज्ञानस्वरूपी ही है, ऐसी दृढ़ श्रद्धा जागृत होते ही आत्मा को ज्ञेयमात्र के प्रति उपेक्षाबुद्धि उत्पन्न हो जाती है । वास्तव में
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