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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( १७७ जान भी लेती है, चक्षु के दृष्टान्त के अनुसार, जिसप्रकार चक्षु अग्नि देखने से गरम नहीं होती तथा बरफ को देखने से ठण्डी नहीं होती इसीप्रकार घोड़े को देखने पर घोड़े के आकार चक्षु नहीं हो जातीं, फिर भी सबको जानती तो है। ऐसी ही स्थिति चक्षु की शक्ति विचित्रता की महिमा को प्रकाशित करती है । यह ही स्थिति ज्ञान की है । प्रश्न ज्ञेय का सन्निकर्ष हुए बिना जानना कैसे हो सकेगा ? उत्तर जिसप्रकार चक्षु को ज्ञेय के सन्निकर्ष हुए बिना भी ज्ञेय की जानकारी हो जाती है, उसीप्रकार ज्ञान को भी होती है। गंभीरता से विचार करें तो चक्षु की ऐसी कोई आश्चर्यकारी सामर्थ्य है कि उस आँख की पुतली (काली टीकी के लैंस) के परमाणु उस उपस्थित ज्ञेय के आकार परिणम जाते हैं, वास्तव में उन ज्ञेयाकार परिणत अपनी चक्षु को ही (जिसमें ज्ञेयवस्तु का अंशमात्र भी पहुँचा नहीं है) वह चक्षु जानती है, वस्तु को नहीं । हमारे अनुभव में भी है कि चक्षु की काली टीकी पर मोतियाबिन्दु आ जाता है तो ज्ञेय सामने होते हुये भी उसका प्रतिबिम्ब काली टीकी पर नहीं पड़ता अतः उस ज्ञेय का देखना चक्षु को नहीं होता । ज्ञेय का परिचय कराने के लिये ऐसा कहा जाता है कि अमुक आँख ने अमुक ज्ञेय को जाना । वास्तव में ऐसा कहना उपचार कथन है। लेकिन ऐसा उपचार किये बिना लोकव्यवहार चल नहीं सकता। इसलिये वास्तविकता का ज्ञान रहते हुये भी ऐसा उपचार करना योग्य ही है । उपरोक्त दृष्टान्त के अनुसार ज्ञान का भी ऐसा ही स्वभाव समझना चाहिये । - - आत्मा का ज्ञान भी, गरम को जानने से गरम, ठण्डे को जानने से ठण्डा, इसीप्रकार क्रोध को जानने से क्रोधी, मान को जानने से मानी इत्यादि रूप नहीं हो जाता। इसीप्रकार पर्वत को जानने से पर्वत आदि के आकार नहीं हो जाता। इससे सिद्ध होता है कि ज्ञान ज्ञेयों को जानते समय उनसे तन्मय नहीं होता, सन्निकर्ष करे बिना भी निरपेक्षपने जानने की क्रिया करता है; यह ज्ञान के निरपेक्ष स्वतंत्र स्वभाव का एवं ज्ञान की आश्चर्यकारी शक्ति का परिचायक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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