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________________ ( सुखी होने का उपाय भाग-४ प्रश्न ज्ञानज्ञेय में तन्मय हुये बिना कैसे जान लेता है ? उत्तर ज्ञान आत्मा का एक असाधारण गुण है। आत्मद्रव्य “उत्पाद-व्यय- धौव्य युक्तंसत्" है उसके गुण भी ध्रुव ही रहते हैं । अतः ज्ञानगुण भी ध्रुव रहकर अपनी पर्याय बदलता (उत्पाद-व्यय करता) ही रहता है। ज्ञान का स्वभाव स्व-परप्रकाशक है अतः हरसमय दोनों को जानता है । स्वभाव, स्वभाव वान् से अलग नहीं हो सकता । अत: जब भी ज्ञान का उत्पाद होता है वह स्व एवं पर को प्रकाशित करता हुआ ही उत्पन्न होता है । अत: हरसमय वह अपने स्वभावसामर्थ्य से स्व एवं परज्ञेयों को जाने बिना रह ही नहीं सकता। इससे सिद्ध है कि ज्ञान अपने स्वभावसामर्थ्य से ही जानता है, न कि ज्ञेय की कृपा से जानने के लिये कोई ज्ञेयकृत पराधीनता नहीं है। 1 १७८ ) - प्रश्न - अगर ऐसा है तो अमुक समय अमुक ज्ञेय को ही ज्ञान क्यों जानता है ? तथा ज्ञान के सामने ज्ञेय नहीं होने पर भी क्यों नहीं जान लेता ? उत्तर क्षयोपशम ज्ञान में हरसमय ज्ञान के सामने ज्ञेय तो अनेक होते हैं लेकिन पर्याय में उन सबमें से जिस ज्ञेय को जानने की तत्समय की योग्यता होती है, उस समय उस ही ज्ञेय का ज्ञान होता है, बाकी अन्य ज्ञेय सामने उपस्थित होते हुये भी ज्ञात नहीं होते। यह भी अनुभवसिद्ध है कि कभी-कभी ज्ञान के समक्ष ज्ञेय उपस्थित नहीं होते हुये भी यह जीव, अपनी कल्पना में ज्ञेय बना लेता है। इसप्रकार ज्ञान अपनी पर्यायगत् योग्यता के अभाव में ज्ञेयों के उपस्थित रहने पर भी, उनका ज्ञान नहीं कर पाता । ― उपरोक्त समस्त चर्चा का सार यह है कि छद्मस्थ ज्ञान का स्वभाव तो स्वपर - प्रकाशक है । वह ज्ञान हर समय अपनी शक्ति सामर्थ्य सहित उत्पन्न होता है तथा तत्समय की योग्यता के अनुसार ज्ञेयों को जानता है। अर्थात् ज्ञान में प्रगट हुये ज्ञेयों संबंधी ज्ञानाकारों का स्वयं ही ज्ञान करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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