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________________ १७६ ) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ से चली आ रही मिथ्या मान्यता को, यथार्थता में परिवर्तित करने का उत्साह जागृत होवे ओर यथार्थ मार्ग अपनाकर, अपनी भूल का विसर्जन कर, मोक्षमार्ग की ओर बढ़ सके। आता स्व को ही जानता है लेकिन मानता नहीं है यथार्थत: तो आत्मा परज्ञेयों को जानता ही नहीं है, कारण वे ज्ञेय तो ज्ञान तक आते नहीं और जानने वाला भी उन ज्ञेयों तक जाता नहीं; उन तक पहुँचे बिना ज्ञान कैसे जान सकेगा? लेकिन ऐसा होने पर भी ज्ञेयों की जानकारी तो ज्ञान में होती ही है यह तो अनुभव में आता है। अत: ऐसा प्रश्न उपस्थित होना स्वाभाविक है कि ज्ञान दूरवर्ती ज्ञेय में पहुँचे बिना भी उसको कैसे जान लेता है? इस प्रश्न का सांगोपांग समाधान प्रवचनसार गाथा २८ से ३१ की टीकाओं में स्पष्ट किया है, अत: आत्मार्थी बन्धुओं को उनका अध्ययन करना चाहिये। संक्षेप में गाथा २९ की टीका का निम्न अंश मननीय है - टीका - “जिसप्रकार चक्षु रूपी द्रव्यों को स्वप्रदेशों के द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर (जानता-देखता है) तथा ज्ञेयाकारों को आत्मसात् (निजरूप) करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता-देखता है उसीप्रकार आत्मा भी इन्द्रियातीतता के कारण प्राप्यकारिता (ज्ञेय विषयों को स्पर्श करके भी जान सकना) कि विचारगोचरता से दूर होता हुआ ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओं को स्व-प्रदेशों से अस्पर्श करता है, इसलिये अप्रविष्ट रहकर जानता-देखता है) तथा शक्ति-वैचित्र्य के कारण वस्तु में वर्तते समय ज्ञेवाकारों को मानों मूल में से उखाड़कर ग्रास कर लेने से अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है। इसप्रकार इस विचित्र शक्ति वाले आत्मा के पदार्थों में अप्रवेश की भांति प्रवेश भी सिद्ध होता है।" यथार्थत: न तो ज्ञेय ज्ञान में प्रविष्ट करता है और न ज्ञान ही ज्ञेय में प्रविष्ट होता है। फिर भी आत्मा की ऐसी महान शक्ति है कि अपनी एक समय की ज्ञानपर्याय, समस्त लोकालोक को जान सकती है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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