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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) लोकालोक के समस्त पदार्थों का ज्ञान वर्तते हुये भी वे किंचित्मात्र भी मोह उत्पन्न नहीं कर सकते ।
अज्ञानी की मान्यतानुसार पर्याय जैसा तो द्रव्य है नहीं। पर्याय तो मात्र एक समयवर्ती पराधीन संयोगी पर्याय का वह रूप तो संयोग के अधीन होने से, संयोग के अस्तित्व को ही प्रकाशित करता है, आत्मा का तो परिचय किंचित्मात्र भी नहीं देता । अतः उसके माध्यम से तो द्रव्य का परिचय हो ही नहीं सकता। दूसरी बात यह है कि वह पर्याय तो हरक्षण अपना रूप बदलती रहती है । जब संयोग भी एकरूप नहीं रह सकते तो पर्याय भी एकरूप कैसे रह सकेगी। फलतः उसको जाननेवाला ज्ञान भी निरन्तर आकुलित ही रहेगा दुःखी रहेगा। सारांश यह है कि अज्ञानी का ज्ञान निरन्तर राग का अर्थात् मोह का ही उत्पादन करता रहेगा । इसीलिये ऐसे अज्ञानी को पर्यायमूढ कहकर अपनी भूल सुधारने के लिये आचार्यश्री ने प्रोत्साहित किया है ।
स्वज्ञेय को कैसे जाना जावे ?
उपरोक्त पद्धति मुख्यतः स्वज्ञेय को जानने की ही है। आत्मा में भी प्रमेयत्वगुण विद्यमान है अत: वह भी तो ज्ञेय है । अत: आत्मा को भी इस ही पद्धति से जाना जावेगा ? अन्य कोई पद्धति हो भी कैसे सकती है । यथार्थतः तो उपरोक्त पद्धति से जानना ही आत्मा के लिये कल्याणकारी है ।
ज्ञेयतत्त्व की पर्याय तो हरसमय अपना रूप बदलती रहती है अतः अज्ञानी आत्मा किसी पर्याय को अपने लिये इष्ट मानकर उसको रोकने का प्रयास करता है तथा किसी को अनिष्ट मानकर हटाने का प्रयास करता है लेकिन इसके प्रयास से न तो वे पर्यायें रुकती ही हैं और न हटती हीं हैं । लेकिन यह निरन्तर आकुलित रहता हुआ अपनी जीवनलीला समाप्त कर देता है ।
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अतः उपरोक्त कथन मुख्यता से तो अज्ञानी को ज्ञानी बनाने के लिये ही है। अज्ञानी को उपरोक्त स्थिति समझ में आ जावे तो अनादि
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