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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१६५ जान लेता है। अत: उनके साथ आत्मा का मात्र ज्ञेय-ज्ञायक संबंध है। ज्ञान और ज्ञेय में अन्य किसी प्रकार का संबंध है ही नहीं फिर भी किसी प्रकार का संबंध मान लेना अज्ञान ही है। वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है। समस्त द्वादशांग वाणी इस ही का विस्तार है।
विश्व के सभी पदार्थों का स्वभाव है कि वे अपन-अपने गुण-पर्यायों में ही परिणमन करें, उनकी मर्यादा मात्र इतनी ही है। विश्व के पदार्थों में आत्मा भी एक पदार्थ है अत: उसके परिणमन की भी मर्यादा अपना द्रव्य ही तो है। स्व-पर प्रकाशक स्वभावी जानने की पर्याय का परिणमन भी, अपने में अपने स्वभाव सामर्थ्य से रहता हुआ ही करेगा इसही कारण अपने से भिन्न वस्तुओं का ज्ञान करने के लिये उसको ज्ञेय के पास जाने की अथवा उसके सन्मुख होने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। ऐसा तो ज्ञान का स्वभाव ही है।
उपरोक्त परिस्थिति द्वारा स्पष्ट समझ में आता है कि ज्ञान को अपनी जाननक्रिया के सम्पन्न (परिणमन) करने के लिये किंचित्मात्र भी किसी अन्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती। ज्ञानपर्याय में जिस समय जिस ज्ञेय को जानने की योग्यता होती है, वह उस समय उस ही को निरपेक्ष रहकर जानते हुये अपने में परिणमती रहती है। यह निश्चय अर्थात् वास्तविक स्वरूप एवं कथन है। उस समय उस पर्याय की योग्यता किस ज्ञेय को जानने की थी, इसका ज्ञान कराने के लिये उस समय के संबंध को ज्ञेय-ज्ञायक संबंध के नाम से कहा जाता है। अत: यह व्यवहार है एवं व्यवहार कथन है।
इसप्रकार के निरपेक्ष परिणमन को भी ज्ञेय-ज्ञायक संबंध कहना वास्तव में व्यवहार ही है। लेकिन विश्व की एवं ज्ञान की तथा ज्ञेय की • स्थिति इसप्रकार का ज्ञान कराये बिना, समझ में नहीं आ सकती। आत्मा
को छहों द्रव्यों के परिणमनों का ज्ञान अवश्य होता है, अन्यथा ज्ञान का स्व-पर प्रकाशक स्वभाव ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। अत: इसप्रकार का संबंध तो मात्र दोनों के सहज स्वाभाविक परिणमन को बतलाने वाला
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