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________________ १६४) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ इसप्रकार गुणपर्यायों सहित पूरे पदार्थ को जो ज्ञेय करता है, उसके ज्ञान में विषमता का अभाव वर्तता है । फलत: मोह की उत्पत्ति नहीं होती। ऐसी श्रद्धा उत्पन्न कराना ही इस ग्रन्थ का मूल उद्देश्य है। उपरोक्त सभी अपेक्षाओं की मुख्यता से प्रवचनसार में असमानजातीयद्रव्यपर्याय को भेदज्ञान कराने के लिये मुख्य रखा है। ज्ञानतत्त्व की भिन्नता के प्रकार । वास्तव में ज्ञानतत्त्व तो त्रिकालीज्ञायकभाव ही है। उसके लिये छहों द्रव्यों के अतिरिक्त अपनी आत्मा में ही बसे अनन्त गुण, अनन्त धर्म एवं विकारी-निर्विकारी सभी पर्यायें भी परज्ञेय हैं, उनको जानने में किसप्रकार भूल होती है, उस विषय पर चर्चा तो भाग ५ में करेंगे। इस भाग में तो मुख्यत: ज्ञायकपरमात्मा (ज्ञान तत्त्व) को छह द्रव्य किसप्रकार ज्ञेय बनते हैं, जिससे दर्शन मोह की उत्पत्ति नहीं होती और अज्ञानी उनको ज्ञेय बनाने में किसप्रकार की भूल करता है, जिससे उसको मोह उत्पन्न हो जाता है, इस विषय को ही स्पष्ट समझने के लिये चर्चा की सीमित रखेंगे। अत: पाठकों को भी अपने विचारों को इस विषय तक ही सीमित रखना चाहिये। ज्ञान का अन्य द्रव्यों से क्या संबंध है? वस्तुस्थिति यह है कि मेरे आत्मद्रव्य से अन्य, सभी द्रव्य, जो संख्या अपेक्षा अनन्तानन्त हैं, वे सब ही भिन्न हैं। उन सबके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारों ही मेरे से अत्यन्त भिन्न हैं। मेरे आत्मद्रव्य के स्वचतुष्टय में उन सभी का अत्यन्ताभाव है। अत: उनमें से किसी के साथ भी मेरा सम्बन्ध तो किसी प्रकार का बन ही नहीं सकता। लेकिन मेरे में एक अचिन्त्य अद्भुत स्वभाव वाला ज्ञानगुणं विद्यमान है जो कि उन ज्ञेयों तक पहुंचे बिना तथा उन ज्ञेयों को भी अपने में बुलाये बिना/सन्मुख हुये बिना, अपनी स्व-पर प्रकाशक शक्ति सामर्थ्य से, सभी द्रव्यों को, उनके अनन्त गुणों को एवं उनकी प्रतिसमय उत्पन्न होने वाली पर्यायों को भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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