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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१६१ जानता एवं परिणमन करता है वह स्वसमय है तथा जो विकारी पर्याय को एकत्वपूर्वक जानता है तथा परिणमन करता है वह परसमय है। गाथा ५ का सारांश - आचार्यश्री ने प्रतिज्ञा की है कि मैं निजवैभव से उस आत्मा को दिखाऊँगा जो पर से विभक्त है और स्व से एकत्व है। गाथा ६ का सारांश - जिसको दिखाने की प्रतिज्ञा की है वह आत्मा ज्ञायक है और वह विकारी तथा निर्विकारी पर्यायों से भिन्न ज्ञायक ही है। इसप्रकार उपरोक्त गाथाओं के माध्यम से यह स्पष्ट हो जाता है कि समयसार की शैली मुख्यता से अपने ही द्रव्य में उत्पन्न होने वाली विकारी-निर्विकारी पर्यायों से भेदज्ञान कराने की है। प्रवचनसा में जिनको विभावगुणपर्याय कहा था, उनसे भेदज्ञान कराने का उद्देश्य है। इस विषय पर विस्तार से चर्चा इसी पुस्तक के आगामी भाग ५ में स्वतंत्र पुस्तक के रूप में करेंगे। यहाँ तो मात्र इस जिज्ञासा की पूर्ति हेतु यह स्पष्ट किया है कि प्रवचनसार में विकारी गुणपर्यायों से भेदज्ञान की चर्चा क्यों नहीं की गई? संक्षेप में समझा जावे तो आचार्यश्री ने ज्ञेय-ज्ञायक संकर दोष के. अभाव करने की विधि तो प्रवचनसार में दी है और भाव्य-भावक संकर दोष के अभाव करने के उपायों की चर्चा समयसार में की है। इसप्रकार तीनों ग्रन्थों के सम्यक् अवगाहन करने से अशुद्धता के सभी प्रकारों का अभाव करके आत्मा आत्मानन्द के अनुभव को प्राप्त कर सकता है। ऐसी विधियों का सांगोपांग वर्णन उक्त तीनों परमागमों में आचार्यश्री ने कर दिया है। असमानजातीय द्रव्यपर्याय को मुख्य करने का कारण क्या ? प्रश्न - गाथा ९३ में विभाव पर्यायें (१)असमानजातीय द्रव्यपर्याय (२) विभाव गुणपर्याय, इसप्रकार दो विभावपर्यायें कहीं हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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