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________________ १६२) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ लेकिन विभावगुणपर्याय से भेदज्ञान कराने की चर्चा क्यों नहीं की? द्रव्यपर्याय (असमानजातीय) को ही भेदज्ञान कराने के लिये मुख्य क्यों बनाया? उत्तर - वास्तव में आत्मा को मोह उत्पन्न कराने के कारणों में तो दोनों ही पर्यायें स्व-पर हेतु से उत्पन्न होने के कारण दोनों ही विभाव हैं अत: दोनों ही समान हैं। इन दोनों में से द्रव्य पर्याय तो भिन्न-भिन्न अस्तित्व रखने वाले दो द्रव्यों में एकत्व करने से उत्पन्न होती हैं लेकिन गुणपर्यायें तो जीव द्रव्य में बसे हुये अनन्त गुणों के परिणमन है। द्रव्य के अनन्त गुणों में और आत्मा में, प्रदेश भिन्नता नहीं है । वे तो सब एक द्रव्य के असंख्यात प्रदेशों में ही उत्पन्न होते हैं। अत: द्रव्यपर्यायों की एवं गुणपर्यायों के भदेज्ञान करने की प्रणाली भी एक कैसे हो सकेगी? विभावद्रव्यपर्याय तो दो द्रव्यों के अलग-अलग स्वतंत्र कार्य है। वास्तव में तो यह कहने मात्र के लिये पर्याय हैं। विभावगुण पर्याय तो आत्मा के गुणों का ही विपरीत परिणमन है। अत: इनके अभाव करने के उपाय भी भिन्न होने से एक ग्रन्थ में दोनों का समावेश करना शक्य नहीं था। इसलिए प्रवचनसार में द्रव्यपर्याय की मुख्यता से कथन किया है। दूसरी अपेक्षा यह भी है कि इस ग्रन्थ में ज्ञान से ज्ञेय के विभागीकरण की मुख्यता है। अज्ञानी को तो गुणपर्यायों का भान ही नहीं हुआ, वह तो इस असमानजातीय द्रव्यपर्याय अर्थात् शरीर आदि में ही अपनत्व स्थापन कर इस ही को आत्मा के रूप में जानता-मानता चला आ रहा है। अत: जब तक इसका यथार्थ ज्ञान होकर उससे भेदबुद्धि नहीं होगी तब तक गुणपर्यायों से भेद करना तो उसको संभव ही नहीं है। इसप्रकार गुणपर्यायों से भेद करने की अपेक्षा द्रव्यपर्यायों से भेद करना स्थूल है, सरल है एवं प्राथमिक आवश्यकता भी है। तीसरी अपेक्षा यह भी है कि असमानजातीयद्रव्यपर्याय अर्थात् शरीर के साथ एकत्वबुद्धि तो निगोद के जीव से लगाकर सैनी पंचेन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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