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________________ १६०) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ उपरोक्त प्रकार से ज्ञान-ज्ञेय के विभागीकरणपूर्वक दर्शन मोह का नाश करने वाले का चारित्र कैसा होता है, उसकी विस्तृत विवेचना आचार्यश्री ने तीसरे चरणानुयोग चूलिका अधिकार में अभूतपूर्व रूप में की है। इसप्रकार ज्ञान-ज्ञेय के यथार्थ विभागीकरणपूर्वक पूर्ण दशा प्राप्त करा देने वाला यह ग्रन्थ है। (३) समयसार की शैली - भगवंत कुन्दकुन्दाचार्य के भेदज्ञान कराने वाले मुख्य तीन ग्रन्थ हैं। उन सबमें ही स्वतत्त्व तो एकमात्र अपरिणामी ध्रुव ज्ञायकतत्त्व है । उस ही में अपनापन स्थापन कराना, यही तीनों ग्रन्थों का उद्देश्य हैं ज्ञायक तो हर समय हर स्थिति में ज्ञायक ध्रुव ही रहता है और वही मोक्षमार्ग में सर्वदा एवं सर्वत्र मुख्य रहता है। आत्मा की स्वाभाविक पर्याय भी जाननक्रिया है। उसकी जाननक्रिया में समस्त द्रव्य, उनके गुण एवं उनकी हर समय की विकारी निर्विकारी पर्यायें सभी ज्ञात होती हैं । यह तो सहज वर्तनेवाला ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण संबंध अनिवार्य उनमें पंचास्तिकाय के माध्यम से तो छहों द्रव्यों को भिन्न-भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व के आधार से भेदज्ञान कराकर अपने ज्ञायक से भिन्न कर दिये । पश्चात् अपना मानने योग्य एकमात्र आत्मा ही रह गया। उसके ज्ञान में जो ज्ञात हो रहे हैं उनको, ज्ञान स्वभाव एवं ज्ञेयस्वभाव का यथार्थ स्वरूप समझाकर प्रवचनसार के माध्यम से भेदज्ञान कराया। अब अपने ही असंख्य प्रदेशों में उत्पन्न हो रहीं ऐसी विभावगुणपर्यायें भी ज्ञान में ज्ञात हो रही हैं तथा उनको पर मानना भी कठिन है। ऐसी कठिन समस्या का समाधान समयसार ग्रन्थाधिराज में है। समयसार का मुख्य विषय ज्ञायकतत्त्व से विकारी-निर्विकारी पर्यायों को भिन्न श्रद्धान कराकर अपनापना कराना है। इसकी पुष्टि आचार्यश्री की निम्न गाथाओं से होती है। गाथा २ का सारांश - जो अपने स्वरूप को एकत्वपूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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