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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (१५९ प्राप्त कराने का कथन है । इसकी शैली पर्याय प्रधानता से द्रव्य का ज्ञान कराने की है। केवली का ज्ञान, स्व एवं पर, अभेद पदार्थ जिसमें सभी गुण एवं पर्यायें अन्तगर्भित होती हैं, उसको ज्ञेय बनाता है, किसी पर्याय विशेष को नहीं। फलत: मोह उत्पन्न नहीं होता। अज्ञानी का ज्ञान मात्र पर्याय विशेष को ज्ञेय बनाकर उसमें एकत्व करता है अर्थात् पर्याय जैसा ही अपने को मान लेता है। इन पर्यायों में अपनापन मानने वाले को ही पर्यायमूढ़ कहा है। इसप्रकार के ज्ञान द्वारा भेदज्ञान कराकर, पर्यायमूढ़ को ज्ञानी बनाने का प्रयास किया है। गुणपर्यायों में विभावगुणपर्याय का परिचय तो कराया है लेकिन उसका अभाव करने के उपायों पर चर्चा इस ग्रन्थ में नहीं की गई है। कारण दोनों विषय अलग-अलग हैं। इसलिये दोनों का भेदज्ञान कराने की पद्धति में भी अन्तर है। प्रवचनसार में तो ज्ञानतत्त्व से प्रमाण के विषयभूत पुद्गलद्रव्य के एकत्व का अभाव कराने को भेदज्ञान कराया है। इस भेदज्ञान कराने में मुख्यता से द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनय का प्रयोग करना होता है और विभावगुणपर्यायों का अभाव करने के लिये, त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवतत्त्व का अपनी ही पर्याय से भेदज्ञान कराया जाता है । अत: उसमें अपनापन स्थापन कराने का प्रयोजन सिद्ध करने के लिये, निश्चय-व्यवहारनय के द्वारा एवं उसके विषयों में भूतार्थ-अभूतार्थ करके भेदज्ञान कराने की पद्धति मुख्य होती है । इसलिये प्रवचनसार का विषय द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय की मुख्यतापूर्वक, ज्ञानतत्त्व से, अन्य सभी द्रव्यों का ज्ञान-ज्ञेय के यथार्थ ज्ञानपूर्वक भेदज्ञान कराया गया है। विभावगुण पर्यायों से भेदज्ञान कराने की विस्तार से चर्चा समयसार ग्रन्थराज में की गई है।
इसप्रकार असमानजातीयद्रव्यपर्याय में प्रमाण का विषयभूत जीव एवं पुद्गल अलग-अलग द्रव्य होते हैं, लेकिन अज्ञानी उन दोनों को अलग-अलग नहीं मानकर, दोनों की एक क्षेत्रावगाही संबंध वाली असमान. पर्याय में एकत्व कर ज्ञेय बना लेता है, फलत: उसको मोह (मिथ्यात्व) उत्पन्न होता है। इस ही विषय का विवेचन ज्ञेय तत्त्वप्रज्ञापन अधिकार में किया गया है।
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