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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (१५५ (१) पंचास्तिकाय की शैली - यह ग्रन्थराज मुख्यतया विश्वव्यवस्था एवं विश्वव्यवस्था का मूल सूत्रधार ऐसे जीव की सामान्य व्यवस्था का ज्ञान कराने वाला एक अद्वितीय ग्रन्थ है। पांच अस्तिकायों में कालद्रव्य मिलाकर छह द्रव्यों का समूह रूप लोक है। उसमें रहने वाले छहों द्रव्यों की स्वतंत्र सत्ता सिद्ध करते हुये “सत्द्रव्यलक्षणं” “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तंसत्” तथा “गुणपर्ययवद्र्व्यं” इन तीन सूत्रों के उद्देश्य को सिद्ध करते हुये विश्वव्यवस्था का ज्ञान कराया है। विश्व में छहों द्रव्य एक दूसरे से निरपेक्ष रहते हुये निर्बाध रूप से अपने-अपने स्वभावों के साथ अपने-अपने स्वक्षेत्र में स्वतंत्रतया परिणमन करते हुये, उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् बने रहकर विश्व की व्यवस्था को टिकाये हुये हैं। इसप्रकार जीव पुद्गल सहित छहों द्रव्यों में से कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के परिणमन में, किसी भी समय किंचित्मात्र भी हस्तक्षेप सहायता अथवा बाधा नहीं पहुंचा सकता। इसीप्रकार जीव भी अपनी विकारी अथवा निर्विकारी पर्यायों का स्वयं ही स्वतंत्रतया षट्कारक रूप से करता है, इसीप्रकार द्रव्य कर्म रूप पुद्गल भी अपनी-अपनी पर्यायों के षट्कारक रूप से स्वयं ही करता है आदि कथनों से जीव को छहों द्रव्यों के परिणमनों के ज्ञायक रहते हुये, उनके प्रति अकर्तापने की श्रद्धा कराने का प्रयास किया है। तत्पश्चात् उत्तरार्द्ध में जीवद्रव्य में वर्तने वाले नवतत्त्वों (जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष) की व्याख्या के द्वारा जीव को ही स्वयं स्वतंत्रता से इन सब पर्यायों का कर्ता बताकर मोक्षमार्ग की प्रारम्भिक भूमिका का ज्ञान कराया है। अन्त में दोनों प्रकरणों के सारभूत मोक्षमार्ग प्रपंचचूलिका के द्वारा निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग का यथार्थ ज्ञान कराया गया है। इसकी शैली में जीवद्रव्य अपनी विकारी अथवा निर्विकारी सभी प्रकार की पर्यायों का कर्ता है, किसी भी पर की पर्याय का कर्ता नहीं हो सकता। इसप्रकार आत्मा को पर का एवं पर के परिणमन का अकर्ता रहते हुये, अपनी सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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