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( सुखी होने का उपाय भाग - ४
इस विषय पर चर्चा समयसार ग्रन्थाधिराज में स्वतंत्ररूप से विस्तार से करेंगे । यहाँ तो स्पष्ट है कि आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ में असमानजातीय द्रव्यपर्याय को मुख्यता से भेदज्ञान कराने मूल आधार बनाया है। ज्ञानतत्त्व के समक्ष ज्ञेयतत्त्व तो यथार्थत: अभेद पदार्थ (द्रव्य) होते हैं, मात्र पर्याय नहीं । लेकिन वस्तु स्वरूप से अनभिज्ञ अज्ञानी, मात्र पर्याय जैसा ही एवं जितना ही द्रव्य को मानकर उसको ही ज्ञान का ज्ञेय बनाता है अर्थात् स्वीकारता है । फलत: परसमय होता हुआ अनन्त आकुलता भोगता रहता है ।
उपरोक्त गाथा ९४ की टीका के भावार्थ से स्पष्ट है कि जो पर्याय में ही लीन हैं, वे जीव एकान्तदृष्टि वाले होने से मनुष्य व्यवहार का आश्रय करते हैं, अतः रागी - द्वेषी होते हैं ।
आत्मा का प्रयोजन तो मात्र सुखी होना है, वह सुख वीतरागता द्वारा ही प्राप्त होता है और वीतरागता सम्यक्त्व के बिना नहीं होती । जिसका प्रमाण है कि भगवान अरहंत को बारहवें गुणस्थान में चारित्रमोह के अभावात्मक परम वीतरागता प्राप्त हो जाने के पश्चात् तेरहवें गुणस्थान में अनन्तसुख, अनन्तज्ञान आदि प्रगट होते हैं । अतः एकमात्र वीतरागता से ही मुझे भी सुख प्राप्त हो सकेगा । ज्ञान के समक्ष तो ज्ञेय के रूप में पदार्थ ही उपस्थित रहता है, लेकिन अज्ञानी उसकी उपेक्षाकर पर्यायों में अपनापन होने से मात्र पर्याय को ही ज्ञेय बनाता है । अत: मिथ्यात्व सहित के राग का उत्पादक होने से संसार परिभ्रमण होता है । उपरोक्त गाथा से भी यही प्रमाणित हुआ है ।
आचार्य कुन्दकुन्द के तीन ग्रन्थों की कथन शैली
दृष्टि के विषय का यथार्थ ज्ञान श्रद्धान कराने के भगवत् कुन्दकुन्द आचार्य के मुख्य तीन ग्रन्थ हैं तीन ग्रन्थ हैं – (१) पंचास्तिकाय, (२) प्रवचनसार और (३) समयसार । तीनों ग्रन्थों का मुख्य उद्देश्य तो आत्मा को त्रिकाल ज्ञायक सिद्ध करते हुये अकर्ता स्वभावी सिद्ध करते हुये उसमें अपनापन कराना
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