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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
(१५३ ज्ञान वर्तने पर भी मोहांकुर उत्पन्न नहीं होता। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अरहंत भगवान का ज्ञान है।
उक्त प्रकरण के समर्थन में इस ही ग्रन्थ में स्वसमय-परसमय की व्याख्या को स्पष्ट करते हुए गाथा ९४ के पूर्व उसकी उत्थानिका में कहते हैं कि -
___ “अब आनुषंगिक ऐसी यह भी स्वसमय-परसमय की व्यवस्था (अर्थात् स्वसमय और परसमय का भेद) निश्चित करके उसका उपसंहार करते हैं।”
उक्त गाथा की टीका के विषय को संक्षेपीकरण कर भावार्थ में स्पष्ट करते हैं कि -
मैं मनुष्य हूँ, शरीरादि की समस्त क्रियाओं को मैं करता हूँ, स्त्रीपुत्र-धनादि के ग्रहण-त्यांग का मैं स्वामी हूँ।” इत्यादि मानना तो मनुष्य व्यवहार (मनुष्यरूप प्रवृत्ति) है; मात्र अचलित चेतना वह ही मैं हूँ, ऐसा मानना परिणमित होना सो आत्मव्यवहार (आत्मारूप प्रवृत्ति) है।
जो मनुष्यादि पर्याय में लीन हैं, वे एकान्तदृष्टि वाले लोग मनुष्य व्यवहार का आश्रय करते हैं, इसलिए रागी-दोषी होते हैं, और इसप्रकार परद्रव्यरूप कर्म के साथ संबंध करते होने से वे परसमय हैं; और जो भगवान आत्मस्वभाव में ही स्थित हैं वे अनेकान्तदृष्टि वाले लोग मनुष्य व्यवहार का आश्रय नहीं करके आत्म व्यवहार का आश्रय करते हैं, इसलिए रागी-द्वेषी नहीं होते अर्थात् परम उदासीन रहते हैं और इसप्रकार परद्रव्यरूप कर्म के साथ संबंध न करके मात्र स्वद्रव्य के साथ ही संबंध करते हैं, इसलिए वे स्वसमय हैं।"
इसप्रकार उपरोक्त प्रमाणों से भी स्पष्ट होता है कि आचार्यश्री ने मात्र असमानजातीय द्रव्य-पर्याय को ही परसमय के कारणरूप में मुख्य लिया है, विभावगुणपर्याय को नहीं लिया। इसका अर्थ यह नहीं हैं कि विभावगुणपर्याय परसमय का कारण नहीं होती? अवश्य होती है, लेकिन
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