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________________ १५२ ) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ उसीप्रकार (१) स्वभावगुणपर्याय (२) विभावगुणपर्याय । इसप्रकार आयत विशेष के ही चार भेद हो जाते हैं । उक्त चार पर्यायों में से समानजातीय द्रव्यपर्याय का तो आत्मा से कोई संबंध ही नहीं है । वे तो पुद्गल की पर्यायें हैं । उसीप्रकार गुण-पर्यायों में से भी स्वभावपर्याय तो स्वाभाविक अनादिअनन्त अगुरुलघुत्व की पर्याय है। अतः उपरोक्त दोनों पर्यायें तो संसारी आत्मा को मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत नहीं रहतीं । मात्र असमान जातीय द्रव्य - पर्याय एवं विभावगुणपर्याय, ये दोनों ही, आत्मा तथा पर के कारण प्रवर्तमान होती हुई आत्मा से संबंध रखती हैं। अज्ञानी ने पर्यायों में ही अपनापन मान रखा है, अर्थात् पर्याय दृष्टि से ज्ञेय को जानता है, ये ही आत्मा को मोह उत्पादन में कारण हो सकती हैं। जिस पर्याय के अवलम्बन को टीका के अन्तिम चरण में तत्त्व की अप्रतिपत्ति जिसका लक्षण है, ऐसे मोह की उत्पत्ति का कारण बताया है वह इन ही पर्यायों की ओर संकेत करता है एवं गाथा में भी इन्हीं के आलम्बन को पर्यायमूढ एवं परसमय कहा है । अतः स्पष्ट है कि जिनको मोहांकुर की उत्पत्ति नहीं होने देना हो, उनको उक्त पर्यायों का अवलम्बन छोड़ देना चाहिए । दूसरी अपेक्षा से विचार किया जावे तो असमानजातीयद्रव्यपर्याय एवं विभाव-गुण- पर्याय, दोनों ही पर सापेक्ष पर्यायें हैं। अतः अगर पर की अपेक्षा दृष्टि में न लेते हुये, मात्र द्रव्यदृष्टि से विचार किया जावे तो दोनों पर्यायों का आत्मा में अस्तित्व ही नहीं बनता। इसप्रकार द्रव्य-गुणपर्याय सहित मात्र पदार्थ ज्ञान का ज्ञेय होने पर तथा पर्याय को गौण करके, मात्र द्रव्य की दृष्टि से देखा जावे तो ज्ञेय को प्राप्त पदार्थ, मोहांकुर की उत्पत्ति का कारण नहीं होता। अज्ञानी उपरोक्त दृष्टि से रहित द्रव्य स्वभाव से अनभिज्ञ, मात्र पर्याय का ही अवलम्बन लेकर परसमय अर्थात् मिथ्यादृष्टि होता हैं । निष्कर्ष यह है कि ज्ञान के समक्ष ज्ञेय तो उपरोक्त प्रकार से द्रव्यगुण- पर्याय सहित पदार्थ ही होता है, उसमें द्वैत (दोपने) का अभाव होने से, जिसको ज्ञातृतत्त्व की यथातथ्य प्रतीति वर्तती है, उसको ज्ञेय संबंधी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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