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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (१५१
प्रश्न - उपरोक्त टीका के अध्ययन से प्रश्न उपस्थित होता है कि ज्ञानी को जो पदार्थ ज्ञेयरूप होता है, उसकी यथार्थ स्थिति क्या है?
उत्तर - सम्यग्ज्ञान में ज्ञेय तो द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक सम्पूर्ण पदार्थ होता है, लेकिन वह पदार्थ सामान्यविशेषात्मकरूप एक होता है पदार्थ जो ज्ञान में ज्ञेय हुआ है वह तो समस्तगुणों का समूह रूप एक पदार्थ तथा कालसापेक्ष अनादि अनन्त वर्तता हुआ (परिणमन करता हुआ) वही पदार्थ ज्ञेय है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्ज्ञान में जिसमें सर्व विशेष गौण किये हुये हैं ऐसा, द्रव्य एवं गुणों के सामान्यांश सहित सम्पूर्ण पदार्थ ज्ञेय होता है। सामान्यांश में उस ही द्रव्य में बसने वाले विशेषांशों का अभाव नहीं वर्तता, वरन् उन विशेषांशों का भी गौणरूप से ज्ञेय में समावेश रहता है। यह ही द्रव्यार्थिक नय का विषय है। प्रवचनसार की गाथा ११४ की टीका में कहा भी है -
__ “वास्तव में सभी वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखनेवाले को क्रमश: (१) सामान्य और (२) विशेष को देखने वाली दो आँखें हैं - (१) द्रव्यार्थिक (२) पर्यायार्थिक ।”
वह अभेद पदार्थ को ज्ञेय बनाने के विपरीत, पर्याय में अपनापन होने से, पर्याय को ज्ञेय बनाता है, अत: वह परसमय-मिथ्यादृष्टि बना रहता है।
उपरोक्त पारमेश्वरी व्यवस्था में जिन विशेषांशों की चर्चा की है अत: उनको भी समझना चाहिये, जिससे मोहांकुर की उत्पत्ति न हो।
उक्त गाथा ९३ की टीका में विशेषांशों के दो भेद किये - (१) विस्तारविशेष और (२) आयतविशेष । उन दोनों में से विस्तारविशेष तो गुणात्मक होने से वे तो द्रव्य में अभेद वर्तते ही हैं, अत: द्रव्य ज्ञेय होने पर उनका तो समावेश पदार्थ में हो ही जाता है। लेकिन आयतविशेष में अनेक भेद पड़ते हैं, जिनका वर्णन उपरोक्त टीका में किया गया है। उसके भेद (१) समानजातीय द्रव्यपर्याय (२) असमानजातीय द्रव्यपर्याय ।
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