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________________ १५६ ) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ पर्यायों का कर्ता माना गया है और इसही को निश्चय कहा गया है। उक्त ग्रन्थ की गाथा ६१ व ६२ इसी तथ्य को सिद्ध करती है - - गाथा ६१ की टीका - “निश्चय से जीव को अपने भावों का कर्तृत्व है और पुद्गल कर्मों का अकर्तृत्व है ऐसा यहाँ आगम द्वारा दर्शाया गया है ॥ ६१ ॥” गाथा ६२ की टीका - “निश्चय से अभिन्न कारक होने से कर्म और जीव स्वयं स्वरूप के (अपने-अपने रूप के) कर्ता हैं ऐसा यहाँ कहा है।" टीका का संक्षेपीकरण कर भावार्थ में इसप्रकार कहा है “ इसप्रकार पुद्गल की कर्मोदयादिरूप से या कर्मबंधादिरूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में पुद्गल ही स्वयमेव छहकारक रूप से वर्तता है इसलिए उसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं है तथा जीव की औदयिकादि भावरूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में जीव स्वयं ही छह कारकरूप से वर्तता है इसलिए उसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं है । पुद्गल की और जीव की उपरोक्त क्रियायें एक ही काल में वर्तती हैं तथापि पौद्गलिक क्रिया में वर्तते हुए पुद्गल के छह कारक जीवकारकों से बिल्कुल भिन्न और निरपेक्ष हैं तथा जीवभावरूप क्रिया में वर्तते हुए जीव के छह कारक पुद्गल कारकों से बिल्कुल भिन्न और निरपेक्ष हैं। वास्तव में किसी द्रव्य के कारकों को किसी अन्य द्रव्य के कारक की अपेक्षा नहीं होती ॥ ६२ ॥” इसप्रकार पंचास्तिकाय का उद्देश्य तो छहों द्रव्यों के परिणमन की स्वतंत्रता के साथ आत्मा उनका अकर्ता ज्ञायक है, ऐसी श्रद्धा कराने का है । अर्थात् प्रमाणज्ञान के विषयभूत अपने आत्मद्रव्य से अन्य प्रमाण के विषयभूत छहों द्रव्यों से भेदज्ञान कराकर अपनी विकारी निर्विकारी सभी पर्यायों का कर्तृत्व स्वीकार कराकर, उसमें कर्म आदि किसी द्रव्य के कर्तृत्व का अभाव है, ऐसी श्रद्धा कराकर, अपने आत्मद्रव्य में ही सीमित कराने वाला ग्रन्थ है । इसकी शैली में दृढ़तापूर्वक आत्मा के विकारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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