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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( १४१ (ज्ञानतत्त्व) में अपनापन उत्पन्न नहीं हो सकेगा । स्वतत्त्व में अपनापन आये बिना, ज्ञान कभी स्व में एकाग्रता नहीं कर सकेगा, उसके बिना निराकुल आनन्द की अनुभूति नहीं हो सकेगी। अतः जिसप्रकार ज्ञानतत्त्व की यथातथ्य प्रतीति करना हमारा परम कर्तव्य है, उसीप्रकार ज्ञोयतत्त्व की यथातथ्य प्रतीति होना आवश्यक है । ज्ञेयतत्त्व का स्वरूप उपरोक्त ज्ञानतंत्त्व (त्रिकाली ज्ञायकभाव) के अतिरिक्त, जो कुछ भी है, वह सब ज्ञेय होने से ज्ञेयतत्त्व ही हैं । सिद्धान्त अपेक्षा भी ज्ञेय का सामान्य स्वरूप भी यही है कि जो भी ज्ञान में ज्ञात हो वह सब ज्ञेयतत्त्व हैं । I ज्ञानतत्त्व तो भगवान अरहंत का आत्मा है और उनके ज्ञान में जो भी ज्ञात हो रहे हैं, वे सब ज्ञेय हैं । इस आत्मा के लिए भी वे वास्तव में ही ज्ञेय हैं और ज्ञेयों का स्वरूप भी वही है जो उनके ज्ञान में प्रतिभासित हो रहा है । ज्ञेयों को जानने की प्रक्रिया भी वही है जो उनके जानने की प्रक्रिया है । उनकी आत्मा, ज्ञान की परिपूर्णता होने से सादि अनन्तकाल तक वैसा एवं उसीप्रकार से ज्ञेयों को जानते रहेंगे। अपने ज्ञानतत्त्व (त्रिकाली ज्ञायक भाव) को उन्होंने स्व के रूप में स्वीकार कर लिया एवं एकत्वपूर्वक उस ही में लीन रहते हुये भी, परज्ञेयों (लोकालोक) को परज्ञेय के रूप में तन्मयता रहित जानते रहते हैं । फलत: आत्मा सुख (अनाकुल आनन्द) स्वभाव में तन्मय होकर अतीन्द्रिय आनन्द का रसपान अनन्तकाल तक करता रहता है । अरहंत भगवान को परज्ञेयों का ज्ञान किसप्रकार वर्तता है भगवान अरहंत को परज्ञेयों के प्रति परपने की श्रद्धा वर्तने से उन ज्ञेयों संबंधी ज्ञान, एकत्वरहित, अतन्मयतापूर्वक, वर्तता रहता है और स्व का ज्ञान अपनेपन की श्रद्धासहित एकत्वपूर्वक स्व में तन्मय होकर वर्तता है। फलतः केवली भगवान परज्ञेयों से निरपेक्ष रहते हुए अपने आत्मानन्द में अनवरतरूप से लीन रहते हैं । इससे सिद्ध होता है कि आत्मा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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