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( सुखी होने का उपाय भाग - ४
ज्ञेयों को जानने की प्रक्रिया अरहंत के समान हो तो, परज्ञेयों संबंधी ज्ञान, राग का उत्पादक नहीं होता ।
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अज्ञानी का भी ज्ञानस्वभाव तो वही है जो अरहन्त भगवान का है । लेकिन उसकी जानने की प्रक्रिया अत्यन्त विपरीत है । अज्ञानी अपनी विपरीत मान्यता के कारण, अनादि से पर में ही स्वपने की श्रद्धा सहित वर्तता चला आ रहा है । अतः परज्ञेयों को जानते समय ही स्वपने की श्रद्धापूर्वक जानता है, इसकारण उनसे निरपेक्ष रह ही नहीं सकता; वरन् एकत्वपूर्वक तन्मय होने की चेष्टा करता है । लेकिन पर में तन्मय होना संभव ही नहीं होने से, असफलतापूर्वक, अत्यन्त आकुलित होता हुआ दुःखी होता रहता है। मिथ्या मान्यता का अभाव हो जाने पर, पुरुषार्थपर्वक अपने त्रिकाली ज्ञायकभाव को स्व के रूप में जान पहिचानकर स्वीकार कर लेगा एवं ज्ञेयों में परपने की सम्यक् मान्यता उत्पन्न हो जावेगी । इसप्रकार का ज्ञान स्व में एकत्वतापूर्वक एवं परज्ञेयों में एकत्वता रहित निरन्तर वर्तता रहेगा । इसप्रकार के परिणमन के समय चारित्र की निर्बलता के कारण, भूमिकानुसार परज्ञेयों की ओर आकृष्ट हो जाता है तदनुसार आकुलता का वेदन भी करता है। लेकिन ज्ञानी और अज्ञानी के वेदन में तो बहुत बड़ा अन्तर बना ही रहता है ।
ज्ञानी का उपयोग जिस समय भी परज्ञेयों से हटकर अपने ज्ञानतत्त्व को उपयोग का विषय बनाता है, उस समय तो उसका ज्ञान भी पर से निरपेक्ष होकर स्व में तन्मय (लीन) हो जाता है और केवली के समान आंशिक ज्ञानानन्द का अनुभव (वेदन) करता है। लेकिन उसके अनुभव का काल एवं प्रगाढ़ता गुणस्थानानुसार ही रह पाती है। अनुभव काल से बाहर आने पर उपयोग पर की ओर जाने पर भी निरन्तर वर्तने वाला परिणमन, जिसको परिणति कहा जाता है, वह वर्तती रहती है । जैसे-जैसे चारित्र बल बढ़ता जाता है वैसे-वैसे ही रुचि की उम्रता एवं परिणति की शुद्धता बढ़ती जाती है और परिणति बलिष्ठ होती जाती है; तदनुसार ही
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