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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (१३१ पास जाना पड़ता है और न परसन्मुख ही होना पड़ता है। इसीप्रकार ज्ञेय को भी अपना स्वक्षेत्र छोड़कर आत्मा के पास आने की अथवा आत्मसन्मुख होने की आवश्यकता नहीं रहती। इसप्रकार सभी द्रव्य (ज्ञेय) स्वतंत्रता से अपने-अपने में अबाधगति से परिणमन करते रहते हैं और आत्मा का ज्ञान भी, परज्ञेयों के परिणमन को किंचित्मात्र भी अस्त-व्यस्त करे बिना स्पर्श किए बिना ज्ञेय निरपेक्ष रहते हुए अपने स्व-परप्रकाशक ज्ञान स्वभाव से जानता रहता है । जैनधर्म के वस्तुस्वातंत्र्य का यही साक्षात् प्रमाण है। इसप्रकार ज्ञेय को जानते हुए भी ज्ञान उससे निरपेक्ष रहता है, विकृत ज्ञेय को जानने पर भी विकारी नहीं हो जाता। केवली भगवान का ज्ञान, लोकालोक के ज्ञेयों को जानते हुए भी उन ज्ञेयों से निरपेक्ष रहता है। निरपेक्ष परिणमन का यह साक्षात् प्रमाण हैं। ___इसप्रकार ज्ञान स्वभाव को समझने से, ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होती है कि मेरे ज्ञान का स्वभाव भी उपर्युक्त प्रकार का ही है अत: मेरे को भी ज्ञेयनिरपेक्ष ही वर्तना चाहिए उस ही से शान्ति अर्थात् निराकुलता संभव है। ज्ञान का ज्ञेयनिरपेक्ष वर्तना स्वभाव होने पर भी, राग-द्वेषादि का उत्पादन कैसे हो जाता है? इस विषय की भी चर्चा की; यह तो स्पष्ट है कि पर निरपेक्ष ज्ञान राग का उत्पादक हो ही नहीं सकता, फिर भी राग आत्मा में विद्यमान तो है, अत: इसका उत्पादक कौन है? इस विषय को भी उपर्युक्त चर्चा से समझा। रागादि का उत्पादक तो आत्मा के यथार्थ स्वभाव की अजानकारी एवं पर में अपनापन रूपी अज्ञान है। समयसार की गाथा ३७१ की टीका के आधार से भी यह स्पष्ट है कि रागादि का उत्पादक तो अज्ञान है, आत्मा अथवा आत्मा का ज्ञान नहीं। लेकिन जब यह अज्ञानी आत्मा ज्ञेयों के ज्ञान के समय उनसे अपनेपन के संबंध के साथ किसी को अच्छा मानकर और किसी को बुरा मानकर संबंध जोड़ लेता है यह ही राग द्वेष का उत्पादन हैं अत: सिद्ध है कि अगर यह आत्मा ज्ञेयों को जानते समय किसी के साथ अपनेपन का संबंध नहीं जोड़े तो, राग द्वेष की उत्पत्ति ही नहीं हो। अगर रागादि की उत्पत्ति ही नहीं हो तो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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