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________________ १३०) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ भी चर्चा की, साथ-साथ अरहंत भगवान के ज्ञानस्वभाव एवं सुखस्वभाव की भी चर्चा करके, ऐसी श्रद्धा उत्पन्न कराने की चेष्टा की गई कि मेरा स्वभाव भी अरहंत जैसा ही है। अरहंत भगवान में जो कुछ भी है, वही मेरे द्रव्य (ध्रुव) में है एवं जो अरहंत भगवान कर रहे हैं, मेरा भी स्वभाव मात्र वही कर सकने का है, इत्यादि के द्वारा अपने स्वभाव की महिमा प्रकट करने एवं कर्तृत्वबुद्धि का अभाव कराने की चेष्टा की गई। अपना आत्मा सब से भिन्न होने पर भी तथा किसी के साथ एकमेक नहीं होने पर भी, अज्ञानी को उसमें विकार उत्पन्न क्यों हो जाता है ? इस समस्या के समाधान हेतु, आत्मा के ज्ञान का स्वभाव एवं उसकी जानने की प्रक्रिया किसप्रकार होती है यह भी समझा। आत्मा का परपदार्थों के साथ किसप्रकार का सम्बन्ध है और कैसा सम्बन्ध होता है, इन सब विषयों पर भी विस्तार से चर्चा की। प्रवचनसार गाथा १५५ की टीका में कहा है कि “वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोग विशेष है।” अत: आत्मा के उपयोग विशेष का स्वरूप समझने के लिए आत्मा के स्व-परप्रकाशक स्वभाव एवं उसकी जाननक्रिया का स्वभाव भी समझा। आत्मा की जाननक्रिया से सभी ज्ञेय भिन्न हैं उनके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सभी भिन्न हैं, आत्मा अपने स्वचतुष्टय को छोड़कर ज्ञेय के पास जाता नहीं तथा दे ज्ञेय भी अपना स्वचतुष्टय छोड़कर आत्मा के पास आते नहीं, फिर भी आत्मा उन ज्ञेयों को कैसे जान लेता है? इस विषय पर भी हमने चर्चा करके यह समझा कि आत्मा के ज्ञान का स्वभाव स्वपरप्रकाशक होने से उसी ज्ञान पर्याय में परसंबंधी ज्ञेयाकार विद्यमान होने से वे भी ज्ञात होते हैं इसकारण इस ज्ञान को स्व को जानते समय, परसंबंधी ज्ञेयाकारों का ज्ञान भी सहज ही हुए बिना रहता नहीं और वे परसंबंधी ज्ञेयाकार भी ज्ञेयों से नहीं बनते वरन् उस ज्ञान पर्याय की तत्समय की योग्यता ही प्रकाशित होती है। ज्ञान की योग्यता जिस ज्ञेय को जानने की होती है मात्र उस समय उस ही ज्ञेय संबंधी ज्ञेयाकार बनते हैं और आत्मा ने मात्र उन ज्ञेयाकारों को ही जाना है। यही कारण है कि ज्ञान को पर का ज्ञान करने के लिए न तो अपना स्वक्षेत्र छोड़कर पर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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