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________________ १३२ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ आत्मा निराकुल आनन्द का ही निरन्तर भोक्ता बना रह सकता है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भगवान अरहंत का आत्मा है । अत: सिद्ध है कि ज्ञान तो रागादि का उत्पादक है ही नहीं, वरन् अपने ही स्वभाव की अश्रद्धा एवं अज्ञान, पर के साथ संबंध जोड़ने में कारण बनता है । फलत: अज्ञानी आत्मा रागादि एवं आकुलता को भोगता हुआ अनन्तकाल तक दुःखी होता रहता है। निष्कर्ष यह है कि अपनेपन की श्रद्धा का अभाव एवं अज्ञान ही समस्त संसार का मूल है। इसलिए आत्मा को उपरोक्त अश्रद्धा एवं अज्ञान का अभाव करने का उपाय ही करने योग्य है । ज्ञातृतत्त्व एवं ज्ञेयतत्त्व की यथार्थ श्रद्धा ही अज्ञान के अभाव का मुख्य उपाय है प्रवचनसार की गाथा २४२ की टीका में निम्नप्रकार आया है कि " ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथाप्रकार (जैसी है वैसी ही यथार्थ ) प्रतीति जिसका लक्षण है वह सम्यग्दर्शनपर्याय है: ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथाप्रकार अनुभूति (ज्ञान) जिसका लक्षण है वह ज्ञानपर्याय है । ज्ञेय और ज्ञाता की क्रियान्तर से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्त्व में परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्रपर्याय है ।” इसीप्रकार ग्रन्थ के ज्ञान अधिकार का समापन करते हुए एवं ज्ञेय अधिकार प्रारम्भ करने के पूर्व श्लोक ६ की टीका में निम्नप्रकार कहा है कि --- “ आत्मारूपी अधिकरण में रहने वाले अर्थात् आत्मा के आश्रित रहने वाले ज्ञानतत्त्व का इसप्रकार यथार्थतया निश्चय करके उसकी सिद्धि के लिए (केवलज्ञान प्रगट करने के लिए) प्रशम के लक्ष्य से (उपशम प्राप्त करने के हेतु से) ज्ञेयतत्त्व को जानने का इच्छुक (जीव) सर्व पदार्थों को द्रव्य-गुण-पर्याय सहित जानता है, जिससे कभी मोहांकुर की किंचित्मात्र भी उत्पत्ति न हो !” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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