SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ सभी प्रकार के विकारी-अविकारी भाव भी, इस जाननक्रिया के लिए परज्ञेय हैं, क्योंकि ज्ञानी को वे सभी परज्ञेय के रूप में प्रतिभासित होते इसप्रकार वास्तव में ज्ञान का, ज्ञेय मात्र के साथ सहज स्वाभाविक ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध कहा गया है । वह ज्ञान तटस्थ रहकर मात्र जानता ही रहता है, किसी के साथ कोई प्रकार का सम्बन्ध नहीं जोड़ता । यही कारण है कि उसकी पवित्रता अक्षुण्ण बनी रहती है। प्रवचनसार की गाथा ४२ में भी कहा है कि – “निर्विकार सहज आनन्द में लीन रहकर सहजरूप से जानते रहना वही ज्ञान का स्वरूप है ज्ञेयपदार्थों में रुकना, उनके सन्मुख वृत्ति होना, वह ज्ञान का स्वरूप नहीं है।” इसप्रकार स्पष्ट है कि ज्ञान की जानने की क्रिया में कोई ज्ञेयकृत अशुद्धता प्रवेश नहीं कर सकती। लेकिन जब वही जाननक्रिया किसी के साथ सम्बन्ध जोड़ेगी आत्मा की पर्याय में तो अपवित्रता आये बिना रह नहीं सकती। वह सम्बन्ध दो प्रकार का हो सकता है, एक तो ज्ञेयों को अपना मानने रूप, उससे जो मिथ्यात्व की अपवित्रता होती है और दूसरा पर मानते हुये भी सम्बन्ध जोड़ना, उससे चारित्र मोह सम्बन्धी अपवित्रता उत्पन्न होती है। अत: सिद्ध है कि ज्ञेयों से निरपेक्ष (तटस्थ) रहकर वर्तना ही ज्ञान का स्वरूप है, किसी से अच्छे अथवा बुरे के रूप में सम्बन्ध जोड़ना ज्ञान का स्वरूप ही नहीं है । सम्बन्ध करते ही अपवित्रता का उत्पादन प्रारम्भ हो जाता है। ज्ञान का उपरोक्त स्वभाव होने पर भी क्षयोपशम ज्ञान की जाननक्रिया ऐसी कमजोर है कि ज्ञेय, स्व एवं पर दोनों एक साथ उपस्थित होने पर भी दोनों को एक साथ जान नहीं सकती। जब स्व को जानती है तब पर को जानना रह जाता है और जब पर को जानती है तब स्व को जानना रह जाता है। ऐसी स्थिति होने पर आत्मा दोनों में से किसको जाने, यह उसकी रुचि पर निर्भर करता है। आत्मा को जब स्व की रुचि For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy