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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१२५ होती है तो ज्ञानपर्याय स्वसन्मुख होती हुई स्व में एकाग्र होती है और जब पर में रुचि होती है तो वही ज्ञान पर्याय परसन्मुख होती हुई उसमें एकाग्र होती है। यह ज्ञान पर्याय का स्वभाव है और स्वभाव तो अपरिवर्तनीय होता है। प्रश्न – ज्ञान का स्वभाव तो मात्र जानने का है, वह स्व को जाने अथवा पर को, लेकिन मात्र जानेगा ही; उससे सुख अथवा दुःख का उत्पादन कैसे हो सकता है? उत्तर - जाननक्रिया का कार्य सुख अथवा दुःख उत्पादन करने का है ही नहीं, लेकिन जब वह स्व को जानती है तब स्व में द्वैत का अभाव होने से निराकुल सुख होता है और जब वही जाननक्रिया पर में एकाग्र होती है तो वहाँ ज्ञेय अनेक होने से, ज्ञेय परिवर्तन के कारण आकुलता होती है। आत्मा में ज्ञानगुण के अतिरिक्त अन्य भी गुण अनेक हैं, जैसे श्रद्धा, चारित्र, सुख, वीर्य, कर्ता, भोक्ता इत्यादि । उन सबका कार्य अर्थात् परिणमन भी, ज्ञान के परिणमन के साथ निरन्तर चलता ही रहता है। उनके कार्यों को प्रसिद्धि करने वाली भी तो एक जाननक्रिया ही है। लेकिन स्वभाव से अनभिज्ञ अज्ञानी को ऐसा दिखने लगता है कि उन गुणों के कार्य भी जाननक्रिया के ही कार्य हैं। जबकि वास्तव में उन कार्यों के उत्पादक तो अलग-अलग गुण ही हैं, ज्ञान नहीं। इसप्रकार की सहज स्वाभाविक स्थिति है अर्थात् ऐसा वस्तु का स्वभाव ही है । इसप्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान का कार्य तो मात्र जानने का ही है, सुख अथवा दुःख का उत्पादक ज्ञान नहीं है वरन् सुख गुण ही हैं। ज्ञान तो सुख दुःख आदि से भी तटस्थ रहकर उनको भी मात्र जानता ही रहता है। न तो वह उन सुख दुःख आदि का कर्ता है और न वेदक अर्थात् भोक्ता भी है। स्व को जानने में सुख एवं पर को जानने में दुःख क्यों? प्रश्न - स्व को जानने के साथ सुख और पर को जानने के साथ दुःख का उत्पादन क्यों होता है? For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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