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अज्ञान राग का उत्पादक कैसे ?
मैं तो मात्र ज्ञानस्वभावी आत्मा ही हूँ और निरन्तर ज्ञान का ही उत्पादन करता रहता हूँ । मेरे में अनेक ज्ञेयों के आकार प्रतिभासित होने पर भी एवं रागादि का उत्पादन होते हुए भी, मैं तो उन सबसे निरपेक्ष रहते हुये भी, मात्र ज्ञाता ही रहता हूँ । मेरे स्वभाव का अज्ञान ही वास्तव में अज्ञान है ।
( सुखी होने का उपाय भाग - ४
,
इसप्रकार के अज्ञान का फल यह होता है कि पर के स्वामित्व की मान्यतापूर्वक ज्ञेयों के प्रति कर्तापने की एवं भोक्तापने की श्रद्धा बनी रहती है । उक्त श्रद्धा के फलस्वरूप, अज्ञानी उन ज्ञेयों में परिवर्तन करने रूप कर्तृत्व से एवं उनको भोगने रूप भोर्तृत्व से, किन्हीं ज्ञेयों को अनुकूल जानकर राग करने रूप, किन्हीं को प्रतिकूल मानकर द्वेष करने रूप भाव ही करता रहता है । इसप्रकार अज्ञानी का अज्ञान ही रागादि का उत्पादक बना रहता
है
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ज्ञानी को इसके विपरीत अपने आपको ज्ञातास्वभावी मानने के कारण, ज्ञेयों के प्रति कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती वरन् मात्र के प्रति उपेक्षावृत्ति, निरपेक्षवृत्ति ही बनी रहती है। फलत उसको सहज ही रागद्वेष का उत्पादन होना ढ़ीला पड़ जाता है; क्योंकि जब ज्ञानी किसी ज्ञेय को अच्छा बुरा ही नहीं मानेगा तो रागद्वेष उत्पन्न ही कैसे हो सकेगा ?
इसही का समर्थन समयसार कर्तीकर्म अधिकार की गाथा ६९-७० की टीका में निम्नप्रकार किया है।
" जो यह आत्मा अपने अज्ञानभाव से, ज्ञानभवनमात्र सहज उदासीन (ज्ञातादृष्टामात्र) अवस्था का त्याग करके अज्ञानभवनव्यापाररूप अर्थात् क्रोधादिव्यापाररूप प्रवर्त्तमान होता हुआ प्रतिभासित होता है वह कर्ता है; और ज्ञानभवनव्यापाररूप प्रवृत्ति से भिन्न, जो क्रियमाणरूप से अन्तरंग में उत्पन्न होते हुए प्रतिभसासित होते हैं, ऐसे क्रोधादिक वे (उस कर्ता के)
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