SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( १२१ था। क्रोध का कार्य क्रोध कषायरूप रहने का था लेकिन ज्ञान का कार्य तो क्रोध से निरपेक्ष रहते हुए, परलक्ष्यी उपयोग में जानते रहने मात्र ही था। इससे यह सिद्ध होता है कि ज्ञान राग का उत्पादक तो है ही नहीं, वरन् उसके घटने बढ़ने में सहयोग करने वाला अथवा रक्षक भी नहीं है। इतना अवश्य है कि ज्ञायक ध्रुव भाव में उपयोग एकत्व होते ही, क्रोध स्वयं ही भाग जाता है, उत्पन्न ही नहीं होता । जैसे स्थूल रूप से भी विचार करें तो क्रोध की उपस्थिति में अगर मेरा उपयोग क्रोध से हटकर ज्ञान के ऊपर चला जावे, कि मैं तो जानने वाला हूँ, मेरे में तो इस क्रोध की जानकारी हो रही है, तो आप ही विचार करें कि क्रोध ठहरेगा या अभाव होता हुआ अनुभव में आवेगा। इस दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट होती है कि ज्ञान का प्रकाश होते ही क्रोधरूपी अंधकार स्वत: ही भाग जाता है, भगाना नहीं पड़ता। इस ही को पण्डित बनारसीदासजी ने नाटक समयसार के आस्रव अधिकार के पद नं. २ में निम्नप्रकार कहा है कि - जेते जगवासी जीव थावर जंगमरूप, तेते निज बस करि राखे बल तोरिकैं। महा अभिमानी ऐसौ आस्रव अगाध जोधा, रोपि रन-थंभ ठाड़ी भयौ मूंछ मोरिकैं॥ आयौ तिहि थानक अचानक परमधाम, ग्यान नाम सुभट सवायो बल फोरिकैं। आस्रव पछारयौ रन-थंभ तोरि डार्यो ताहि, निरखि बनारसी नमत कर जोरिकै ॥ २ ॥ इसप्रकार सम्पूर्ण चर्चा से स्पष्ट होता है कि ज्ञान, राग का उत्पादक तो है ही नहीं, वरन् उसका नाशक ही कहा जा सकता है। ऐसी श्रद्धा के अभावरूप अज्ञान ही राग का उत्पादक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy