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( सुखी होने का उपाय भाग-४ आश्रय छोड़कर ज्ञेयों के परिवर्तन करने की चेष्टा में संलग्न रहता है फलत: निरन्तर आकुलित बना रहता है।
ज्ञान में स्व के माध्यम से पर का ज्ञान होता है ज्ञानस्वरूपी आत्मा का कार्य तो जाननक्रिया ही है । उस जाननक्रिया का क्षेत्र भी आत्मा के असंख्य प्रदेश ही हैं। हर एक द्रव्य की पर्याय अपने-अपने स्वक्षेत्र में रहते हुए ही पणिमती है। अन्य द्रव्य के क्षेत्र में वह कुछ करे, यह संभव ही नहीं है। यही कारण है कि वह द्रव्य अपनी पर्याय का फल, स्वयं ही भोगता है। इसप्रकार यह स्पष्ट है कि आत्मा जानने का कार्य अपने क्षेत्र में ही रहकर करती है और ज्ञानक्रिया स्व-पर प्रकाशक होने पर भी उसका भी क्षेत्र तो उसका आत्मा ही होता है; क्योंकि पर संबंधी ज्ञेयाकार भी अपनी ज्ञान पर्याय ही है। तात्पर्य स्पष्ट है कि आत्मा के ज्ञान का विषय सीधा पर पदार्थ नहीं हो सकता, निज आत्मा ही होता है । ज्ञानक्रिया तो आत्मा की है और उसके जानने का कार्यक्षेत्र भी स्वआत्मा ही है तो फिर उसका विषय भी आत्मा से बाहर अन्य कैसे हो सकता है। अत: सिद्ध है कि आत्मा यथार्थत: स्वमुखापेक्षी होकर ही जानने की क्रिया करता है। लेकिन उस ज्ञान की पर्याय का स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें स्व के अतिरिक्त परज्ञेयों सम्बन्धी ज्ञेयाकार भी निरन्तर विद्यमान रहते हैं। अत: स्व के माध्यम से ही पर का ज्ञाता भी आत्मा है। इसलिए स्व के साथ ही पर का ज्ञान भी आत्मा को हुए बिना रह ही नहीं सकता। ऐसा ही ज्ञान का एवं ज्ञान की पर्याय का अचिन्त्य अद्भुत स्वभाव है।
ज्ञान के परिणमन की वर्तमान दशा के सम्बन्ध में भी विचार करें तो हमारे अनुभव में आवेगा कि मेरा ज्ञान भी स्व के माध्यम से ही पर को जानता है। जैसे क्रोध की उत्पत्ति के समय सहज ऐसी भाषा निकलती है कि मुझे क्रोध आया। यह भाषा भी इसी को सिद्ध करती है कि क्रोध की जानकारी भी ज्ञान में आती है। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि क्रोध के समय ही क्रोध की जानकारी करता हुआ ज्ञान उपस्थित था और उस
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