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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( १११ ज्ञानक्रिया को ही 'मुझे' के नाम से बोला जा रहा है । अगर उस समय जाननेवाला ज्ञान उपस्थित नहीं होता तो क्रोध के अस्तित्व का ज्ञान ही कैसे हो सकता था। यह भी खास ध्यान में लेने योग्य है कि मुझे स्वयं का अस्तित्व अव्यक्तरूप से क्रोध के पहिले ज्ञान में आता है, तभी तो ऐसी भाषा निकलती है कि 'मुझे क्रोध आया' । इसप्रकार हमारा उक्त प्रकार का सहज परिणमन भी यह सिद्ध करता है कि आत्मा के ज्ञान का स्वभाव ही ऐसा है कि वह स्व के माध्यम से ही पर का ज्ञान करता है अर्थात् स्व के सन्मुख रहते हुए ही पर सम्बन्धी ज्ञेयाकारों की भी जानकारी करना ज्ञान का स्वभाव है 1 अनादिकाल से ज्ञान का उपरोक्त स्वभाव एवं परिणमन होने पर भी अज्ञानीजीव की श्रद्धा विपरीत होने से अपने में अपनापना एवं अस्तित्व काही विश्वास नहीं है, परपदार्थों में अपनापन मानता चला आ रहा है । अत: अपनी ज्ञानपर्याय में, स्व तथा पर दोनों प्रकाशित रहने पर भी स्वज्ञेय को जानने की रुचि ही नहीं होने से मात्र पर को ही मुख्य अर्थात् लक्ष्य बनाता है। अत: पर के ज्ञान का ही अस्तित्व दीखता है । इसलिए इस पर उसको विश्वास ही नहीं होता कि आत्मा स्व को भी जानता है और पर का ज्ञान भी स्व के माध्यम से होता है । समयसार की गाथा १७-१८ की टीका का अन्तिम भाग मननीय है “ परन्तु जब ऐसा अनुभूति स्वरूप भगवान आत्मा आबालवृद्ध सबके अनुभव में सदा स्वयं ही आने पर भी अनादि बन्ध के वश पर (द्रव्यों) के साथ एकत्व (अपनत्व) के निश्चय से मूढ़ अज्ञानी जन को 'जो यह अनुभूति है वही मैं हूँ' ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता ।” जाननक्रिया का स्वभाव ज्ञेय निरपेक्ष वर्तना ही है 1 जाननक्रिया का उत्पादक एवं आधार ज्ञानस्वभावी आत्मा ही है । और उसका उत्पादन क्षेत्र भी आत्मा ही है । ज्ञानक्रिया से भिन्न, ज्ञेय का 1 क्षेत्र, उत्पादक एवं आधार सब अन्य ही हैं । अतः जाननक्रिया के परिणमन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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