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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
(१०९ आत्मस्थ (आत्मा में रहे हुये) देखकर ऐसा उपचार से कहा जाता है कि सर्व पदार्थ आत्मगत हैं, परन्तु परमार्थत: उनका एक दूसरे में गमन नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वरूपनिष्ट (अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में निश्चल अवस्थित) हैं।"
इस ही गाथा में आये ज्ञेयाकारों का भाव स्पष्ट करते हुए टिप्पणी में लिखा है कि 'इन ज्ञेयाकारों को ज्ञानाकार भी कहा जाता है, क्योंकि ज्ञान इन ज्ञेयाकार रूप परिणमित होता है।'
प्रवचनसार गाथा ३१ के भावार्थ में दृष्टान्त द्वारा इसको सिद्ध किया
___ “इसीप्रकार ज्ञानदर्पण में भी सर्वपदार्थों के समस्त ज्ञेयाकारों के प्रतिबिम्ब पडते हैं अर्थात् पदार्थों के ज्ञेपाकारों के निमित्त से ज्ञान में ज्ञान की अवस्थारूप ज्ञेयाकार होते हैं (क्योंकि यदि ऐसा न हो तो ज्ञान सर्वपदार्थों को नहीं जान सकेगा।) वहाँ निश्चय से ज्ञान में होने वाले ज्ञेयाकार ज्ञान की ही अवस्थायें ज्ञानाकार हैं पदार्थों के ज्ञेयाकार कहीं ज्ञान में प्रविष्ठ नहीं हैं।"
उपरोक्त चर्चा का तात्पर्य यह है कि ज्ञान में जो ज्ञेय प्रतिभासित होते हैं, वे सब ज्ञान की स्वयं की अवस्थायें हैं, यथार्थत: वे ज्ञेयाकार नहीं वरन् ज्ञानाकार ही हैं लेकिन उन ज्ञानाकारों का परिचय देने के लिए ज्ञेयों को माध्यम बनाकर व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि ज्ञान ने अमुक ज्ञेय को जाना, इसप्रकार उन ज्ञानाकारों का परिचय दिया जाता है। उन ज्ञानाकारों का उदय, उस समय की ज्ञानपर्याय की योग्यता को प्रसिद्ध करता है, ज्ञेय को नहीं।
इसप्रकार ज्ञेयों से निरपेक्ष वर्तते हुए ही उस ज्ञान पर्याय का अस्तित्व है। यही कारण है कि ज्ञान को ज्ञेयकृत अशुद्धता भी नहीं होती। इस पर भी अनादिकालीन मिथ्या मान्यता के कारण अज्ञानी को, उन ज्ञानाकारों का उत्पादक ज्ञेय प्रतिभासित होता है, इसलिये वह अपने आत्मा का
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