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________________ ९०) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ से, अशुभभाव होने पर भी अपने को आत्मार्थी मानकर संतोष कर लेते है अथवा अशुभ विचारों को छोड़कर शुभ विचार कर लेने मात्र से अपने को धर्मात्मा, मोक्षमार्गी मान लेते हैं। इसप्रकार वे भी मनोगत ज्ञान के प्रति उसी प्रकार चिपटे रहते है, जिसप्रकार इन्द्रिय ज्ञान के प्रति आत्मपना रखने वाले चिपटे रहते हैं। अत: वे भी उपयोग को बाहर ही बाहर रोके रखते है। उनको तो परलक्ष्य छूटकर आत्मलक्ष्य होना असंभव है। इससे भी आगे आत्मार्थी, अन्य विकल्पों को छोड़ आत्मसंबंधी विकल्पों अथवा पर एवं पर्यायों से भेदज्ञान संबंधी विकल्प अथवा आत्मा के गुण एवं गुणी के भेद अथवा उसके एकत्व तोड़ने संबंधी विकल्पों को आत्मकल्याण के लिये उपयोगी मानकर, उनसे उग्रता के साथ चिपटे रहते हैं । अथवा घंटों ध्यान लगाकर चिन्तवन करते हुये उनको आत्मानुभूति के कारण मानकर उपयोग को उन ही में उलझाये रखते है। वे भी उपयोग को बहिर्लक्षी ही बनाये रखना चाहते है। उनको भी आत्मोपलब्धि असंभव है। ___ इसप्रकार मनजन्य ज्ञान के प्रति भी सूक्ष्म एकत्व बुद्धि बनी रहती है। अज्ञानी को ऐसा लगता ही नहीं है कि ये आत्म कल्याण की घातक है, इसमें हेयबुद्धि होना, इन्द्रियज्ञान से भी अधिक कठिन है। सारांश यह है कि अज्ञानी को आत्मा के स्वभाव की जानकारी एवं विश्वास का तो अभाव है ही अत: परलक्ष्यी ज्ञान में उपादेय बुद्धि सहित, इन्द्रियों एवं मन के माध्यम से ज्ञात विषयों में सुखबुद्धि की मान्यता सहित प्रवर्तता है। कर्तृत्व भोक्तृत्व बुद्धि का विश्वास होने से विषयों को जुटाने एवं भोगने के अभिप्राय से, २४ घण्टे तीव्र आकुलित हो होकर पानी के बैल की भाँति जुटा रहता है। अपना कर्तव्य मानकर, गति को और भी तीव्र करने के प्रयासों में रत रहता है। इसप्रकार अज्ञानी को इन्द्रियज्ञान एवं मनजन्य ज्ञान, राग एवं कर्ता बुद्धि के उत्पादन में कारण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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