________________
८ )
( सुखी होने का उपाय भाग - ३
दशा ही, अरहंत के द्रव्य का परिचायक है । १०० टंच के शुद्धस्वर्ण के समान उनका आत्मा ही शुद्ध आत्मा है । इसप्रकार हर एक आत्मा का स्वभाव अर्थात् ध्रुवांश तो उनके समान ही है । मैं भी एक आत्मद्रव्य हूँ, अतः मेरा ध्रुव भी अरहंत के समान ही है। मेरी वर्तमान पर्याय में जो भी रागादि भाव होते हैं उनका ध्रुवांश में तो अस्तित्व ही नहीं है। वे तो समयवर्ती पर्याय मात्र हैं। उक्त पर्याय तो, पर में अहंपना स्थापन करने से, ज्ञान के परलक्षी परिणमन के समय, आत्मा की मिथ्या मान्यता के कारण उत्पन्न हुई है और किसी ज्ञेय को अच्छा मानकर रागरूप एवं किसी को बुरा मानकर द्वेषरूप, उत्पन्न हुई क्षणिक पर्याय मात्र है । उस पर्याय का जीवन ही मात्र एक समय का है। दूसरे समय तो स्वयं व्यय हो जाती है। साथ में वर्तता हुआ मेरा ज्ञानस्वभाव स्थाई भाव होने से, उसमें इन सब क्षणिक पर्यायों के आवागमन का ज्ञान कालांतर में भी बराबर बना रहता है । अत: विकाररूपी संसार तो एक समय मात्र का ही है । लेकिन मेरी मिथ्या मान्यता जब तक चलती रहेगी तब तक, यह भाव (संसार) हर समय नवीन-नवीन उत्पन्न होता ही रहेगा । इसही कारण अभी तक भी चलता चला आ रहा है । अत: इस राग-द्वेषादि भावसंसार की उत्पत्ति का कारण, मात्र एक मेरी मिथ्या मान्यता ही है । उस ही कारण जो मेरे नहीं हैं ऐसे ज्ञेय तत्वों को भी मेरा मानकर उनको प्राप्त करने एवं हटाने की दौड़ ही अनादि से करता चला आ रहा हूँ ।”
I
“ज्ञान का स्वभाव ही स्व पर प्रकाशक है । वह स्वभाव से ही, स्व को जानते हुए पर को जानता हुआ उत्पन्न होता है । आत्मा का ज्ञान, जानने की क्रिया भी, अपने असंख्य प्रदेशों में रहते हुए अपने में ही करता है । पर पदार्थ इसके ज्ञान तक आते नहीं और आत्मा भी उनको जानने के लिए अपने से हटकर उन पदार्थों तक जाता नहीं वरन् अपने आप में रहकर ही दूरवर्ती समीपवर्ती सभी को जान लेता है लेकिन ज्ञेयों की अच्छाई-बुराई ज्ञान में नहीं आती । आत्मा के ज्ञान का ऐसा ही एक अचिंत्य अद्भुत आश्चर्यकारी स्वभाव है। इसके अतिरिक्त एक और
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International